Saturday, April 20, 2013



                       आदिवासी समाज में जनसंचारक कबीर (छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में)
                                                                                                                   


                                                              

                                                                                                                    ( मित्रो मेरा यह शोध आलेख डाय मेनसन  रिसर्च जर्नल में प्रकाशित हो चुका हैं ।)
                                                                

                                                        
                                                                   शोध-सारांश

कबीर का स्वभाव सदैव ही जनोन्मुखी था, जनोन्मुखी रहा और जनोन्मुखी रहेगा। उनका सब कुछ आमजन को समर्पित रहा है। यही कारण है कि कबीर ने तत्कालनीन सामाजिक आंदोलन के निमित्त एक बड़ी जनक्रांति के सफल नायक बनकर उभरे और क्रांति के दौरान जन से अभिन्न रहे। उन्होंने एक सामान्य श्रमिक की तरह जीवन जीया। उनके संदेश सरल और जनभाषा में है जो सीधे आमजन के दिल को छूते हैं। अतः कबीर का यह ऐतिहासिक प्रयास एक दुर्लभ वस्तु है। जिस वर्ग से कामगर के रुप में उन्होंने अपनी आजीविका पाई, सबसे पहले उसी वर्ग के खिलाफ उन्होंने जेहाद का ऐलान किया, संघर्ष किया। कबीर की क्रांतिकारी विचारधारा केवल सिद्धांत का कोरा निरुपण नहीं है, अपितु अपने जनों के साथ कई अनुभवों की साझेदारी है। दरअसल एक दिये से जैसे असंख्य दिये प्रज्वलित हो उठते हैं, ठीक उसी प्रकार कबीर वाणी जो एक में प्रकट हुई, उससे असंख्य दीप मालिकाएं जगमगाने लगीं। जनता ने अपने उद्धारकर्ता के आशय को आत्मसात् कर लिया।
समकालीन परिवेश में जीवन मूल्यों की स्थिति अत्यन्त मलीन है। चूंकि, भारत विविधताओं का देश है, अतएव सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मूल्यों में भी विविधताएं सहज ही परिलक्षित होती हैं, खासकर हमारे आदिवासी समाज में। इस संदर्भ में सबसे रोचक पहलू यह है कि अब भी इन क्षेत्रों में मूल्यवादी समाज दर्शन दिखाई पड़ता है। जो दूरस्थ आदिवासी क्षेत्र हैं और अविकसित हैं, वहां सामूहिक जीवन के पारस्परिक बंधन आज भी मजबूत हैं। इनमें सामूहिक जीवन और रागात्मक जीवन में इतना पारस्परिक अवगुंठन है कि तमाम आदिवासी जातियां व्यक्तिगत जीवन के स्पर्श से अछूती नहीं हंै। और तो और उनमें वंश, जाति, परम्परा आदि को लेकर कोई कृत्रिम विभाजन नहीं है। अवलोकनार्थ जो असमानताओं के घटक दिखाई पड़ते हैं, वे पहचान मात्र के लिए हैं। उनका वास्तविक रुप से कोई अलग महत्त्व नहीं है,खास निहितार्थ नहीं है।
एक वास्तविकता और है जिसे इस क्षेत्र में अनुभव किया जा सकता है। वह यह है कि सभी प्रकार की धार्मिक विचारधारायें एक प्रमुख धर्म मानव धर्म में आकर लीन हो जाती हैं। विवेचनार्थ , इसमें सबसे अधिक विलक्षण दिखते हैं- कबीर व उनके उपदेश में। दरअसल कबीर यहां के जन चेतना के क्षितिज पर छाये हुए हैं। एक महान गुरु की तरह वे सत्यपथ से अलग हो जाने वाले व्यक्ति को सही राह पर लाते हैं। कबीर की विचारधारा इन इलाकों में विभिन्न रुपों में फैली हुई हैं। आदिवासी जीवनमूल्यों और कबीरी आदर्शों के बीच आंतरिक रुप से आदान-प्रदान सहज ही महसूस होता है। उच्च स्तर पर भी यह अनुभव किया जा सकता है। यह आंतरिक क्रिया व प्रतिक्रिया आज एक नये रुप में प्रचलित हो गई है। क्योंकि, आज आदिवासियों के सामने पहचान की एक अकल्पनीय चुनौती खड़ी है जो उनकी आज तक की समस्त उपलब्धियों और जीवन परिचय को खत्म करने पर तुली हुई  है। इस संकलपना को लेकर अध्ययन व विश्लेषण के दौरान यह समझने की कोशिश की गई है कि इस नवीन चुनौती का सामना करने के लिए कबीर की दृष्टि और विचारों को आदिवासी समाज विशेष तौर पर छत्तीसगढ़ी समाज, अनजाने या जाने में कितना आत्मसात किया है और  साथ ही साथ कबीर के संदेशों का आज के उनके जीवन संघर्ष में क्या प्रदेय रहा है? इस अर्थ युग में पैसा, बाजार और मशीन- इन तीनों के खिलाफ संघर्ष में कबीर कहां तक उनके साथ हैं ?



परिचय .     
    आरण्यक संस्कृति की प्रकृतिमयता, जीवन्तता, संतुलन, समन्वय, धर्मपरायणता, मूल्यवादिता, समावेशी चरित्र, मानवीयता, उदारता, सहअस्तित्व और चिदम्बरी चेतनाएं-ये सभी बातें हमें छत्तीसगढ़ी संस्कृति में परस्पर अवगुंठित दिखाई पड़ती हैं। इस संस्कृति की विशालता और व्यापकता यहां के लोगों की विराट चेतना का द्योतक है। दरअसल छत्तीसगढ़ी संस्कृति में हमें यही विराटता दिखाई पड़ती है, जो अनादि युग से आज तक सभी को अपने संवेदनशील बाहों में भरे एक जटिल रुप में हमें आने के लिए आह्मवान कर रही है।
छत्तीसगढ़ी संस्कृति की प्रकृति और जीवन.चर्या में सहिष्णुता और समाहार दो तत्व सदा ही विद्यमान रहे हैं। प्रगति की अंधदौड़ में वह पीछे रह गई हैए पर अपने सांस्कृतिक जटिल विधान में और मिश्रित संरचना में किसी भी सार्वभौम या विश्वव्यापी संस्कृति से कहीं अधिक आधुनिक है।
आदिम संस्कृतिए प्राचीन संस्कृति तथा आधुनिक वैज्ञानिक संस्कृति सभी छत्तीसगढ़ी संस्कृति के बहुआयामी व्यक्तित्व में समा गई है। साहित्यए संस्कृति और कला सभी में प्राचीन काल से आज तक भारत में जितने विकास दिखाई पड़ते हैंए उन सबका एक लघु रुप छत्तीसगढ़ की संस्कृति में है। आदिम संस्कृति के साथ आर्यए द्रविड़ए बौद्धए जैनए सिक्खए कबीर.पंथीए इस्लामए इसाई आदि की सांस्कृतिक धाराएं यहां की संस्कृति में दिखाई पड़ती है। शताब्दियों से भारतीय संस्कृति में असंख्य सांस्कृतिक धाराएं मिलती और नये रुपों में प्रगट होती हुई दिखाई पड़ती हैं। इन तारों को अलग कर पाना असाध्य ही नहीं असंभव भी है। सामाजिक संरचना में धार्मिक और सांस्कृतिक अनेक स्वर्णिम और रजत तार अपने ताने.बाने में भारतीय जीवन को बुनते रहै हें। फलस्वरुप जिस अखिल मानवीयता की परिकल्पना यहां दिखाई पड़ती हैए वह विश्व जीवन में एक गहरी छाप छोड़ती है। धार्मिक और सांस्कृतिक सहिष्णुता व अवबोधए मामन्जस्य और संतुलन यही विश्व को भारतीय जीवन की देन है। भारतीय संस्कृति के इस सर्वग्राही और समाहारी व्यक्तित्व की छापए उसकी क्रोड़ में खेलने वाली जितनी सांस्कृतिक चेतनाएं है . उनमें दिखाई पड़ती है।
छत्तीसगढ़ अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण संपूर्ण भारतीय जीवन में एक खास स्थान रखता है। वह अपने आप में एक छोटा भारत है . ष्ष्भौगोलिकए सांस्कृतिकए सामाजिकए आर्थिक और साहित्यिकश्श् . सभी रुपों में।
भाषा की दृष्टि से छत्तीसगढ़ भारतीय संस्कृति को आत्मसात् किए हुए हैए पर साथ ही अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण वह मिश्रित और समावेशी प्रकृति के अनुरुप एक मिश्रित और विकासमान जन.भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाये हुए है। ऐतिहासिक दृष्टि से यहां भी समय के अंतराल में अनेक जाति.प्रजातिए संस्कृतिए कलादर्शन आदि धाराएं मिलकर एक मुख्य जीवन प्रवाह के रुप में बहती रही हैं। उसकी इस समावेशी प्रकृति के कारण कबीर.पंथ का सम्पूर्ण जीवन में फैलाव अतिशीघ्र होता है। छत्तीसगढ़ संस्कृति की पहली और अंतिम पहचान है . उसकी मानवीयता और संवदेनशीलता। यही कबीरीय संदेश की भी मुख्य बातें हैं। समय चक्र के साथ जब कबीर का आगमन होता है और उनकी वाणीं वायुमंडल में गूंजती हैए तब हवा की तरंगों पर अटखेलियाँ खेलती यह रागिणी यहां के लोक जीवन में झंकृत हो उठती है। इसलिए हम कबीर पंथ को बहुत गहराई से छत्तीसगढ़ी संस्कृति में परिव्याप्त देखते हैं।
कबीरीय चेतना आने से पहले मानों छत्तीसगढ़ की जीवन्त प्रकृति उसकी आगवानी के लिए बाँह फैलाये खड़ी थी। अविलम्ब वह चारों और फैलकर यहां के जीवन के साथ एकरस हो गई। इसलिए इस कबीरीय चेतना को हम छत्तीसगढ़ में उपलब्ध आदिवासीए सत्नामीए पिछड़ा वर्गए ब्राह्मणए बौद्धए जैनए सिक्खए ईसाईए मुसलमान तथा और भी जितने मत.मतांतर हैंए सब में कमोवेश से इसे प्रतिध्वनित पाते हैं। इतना ही नहीं छत्तीसगढ़ के आस.पास अन्य क्षेत्रों में इस वाणी का प्रभाव देखा जा सकता है।
छत्तीसगढ़ की भूमि अनादिकाल से संतों . ॠषियों और मुनियों का प्रिय क्षेत्र रहा है। उनके प्रभाव से वह अपने यहां एक उदात्त स्वरुप को बना सका है। पर इस ऐतिहासिक कालखंड में हम कबीर पंथ को सर्वाधक रुप से यहां फैलते हुए देखते हैं। छत्तीसगढ़ के साधु संत और योगी भी आस.पास के क्षेत्रों में भ्रमण करते रहे और लोक चेतना जगाते रहे।
मूलभूत रुप से छत्तीसगढ़ संस्कृति लोक संस्कृति है। क्योंकि यह आदिवासी क्षेत्र है और आदिम जातियां यहां के मूल निवासी हैं। कबीर . कबीर की वाणी तथा उनका जीवन दर्शन सभी कुछ जनवादी है। उसका यही जनपदीय व्यक्तित्व छत्तीसगढ़ी संस्कृति के साथ सबसे अधिक तालमेल रखता है। जनता की आत्मपीड़ाए उसकी मौन ललकारए विश्वमानवता के मंदिर में समानता और प्रेम का अधिकार आदि वे सपने हैंए जो कबीरीय संदेश के मूल तत्व हैं। सह.अस्तित्वए पारस्परिक सहयोगए संतुलन आदि बातें जो छत्तीसगढ़ी संस्कृति की मूल बातें हैंए कितनी कबीरीय वाणी के कारण हैं और कितनी भारतीय संस्कृति के प्रभाव के कारण तथा कितनी छत्तीसगढ़ी संस्कृति की देन हैए कह पाना असंभव हैघ् किसने किसको कितना दिया और लियाए शायद यह राज तभी खुलेगाए जब प्रकृति के महामौन को वाणीं मिलेगी। तब इतिहास से कोई स्वर मुखरित होगा या फिर आकाश में कोई जीवन रागिणी लहरायेगी। मध्ययुग के नीलगगन मेंए झलमलाते संतों की आकाशगंगा में सबसे अधिक तेजोदीप्त संत कबीर का अन्यतम स्थान है। कालजयी कबीर के संदेश मानवता की चिरन्तन निधि हैं। अर्थयुग और जन्त्रारुढ़ वि के संदर्भ में कबीर के मूल्यान्वेषणए मूल्यासंस्थापन व मानववाद का विशेष महत्व है। आज सांस्कृतिक शून्यता है। कबीर का मूल्यवादी और मानववादी दृष्टिकोण आज के संकट का उत्तर है। मानव समाज अपने इतिहास सफर में आज सबसे अधिक कठिन दौर से गु रहा है। ष्ष्पैसाए बाजार और मशीनश्श् जो उपभोगवाद और उपयोगितावाद के प्रतीक हैंए ये तीनों आज मनुष्य के जीवन मूल्योंए आदर्शों और मानवबोध को बड़ी तेजी से क्षरण की ओर ले जा रहे हैं। वे जीवनादर्श और भावनादर्श जो मनुष्यता की सुंगंध से सुवासित थे न जाने कहां खो गये हैं। मानव के सुकुमार संबंधए उसके रागमय जीवन के तुहीन कणए उसके नन्हे.नन्हें सुख.दुख की अनेक कणिकायें आदि बातें व्यापारिक युग के बाजार में विक्रय की वस्तु बन गयी हैं। मानवीय संबंधों के प्रति एक पाषाणी तटस्थता मिलती है। रागात्मक और मूल्यवादी जीवन के लिए गहन उदासीनता। समाज में अकल्पनीय असमानता हैं। अति.केन्द्रीत.शक्ति.संरचना में राज्य और बाजार दोनों ने मिलकर मानव को कृतदास बना लिया है।हां सब कुछ अमानवयी है। सब कुछ मानव और उसकी स्वतंत्रता के खिलाफ हो रहा है। स्थिति बहुत उत्साहजन नहीं हैए पर हम यह न भूलें कि मानवयी चेतना सदा ही दासत्व के खिलाफ बगावत करती रही है। जीवन के गंभीरतम उतार.चढ़ाव के बीच अपने को ढ़ालती रही है। क्रांति का स्वरुप भिन्न हो सकता है पर उसका जो मर्म है वह एक है। कबीर उस क्रांति के प्रतीक हैं। कबीर का विद्रोह सामाजिक अन्यायए विषमता अतिचार तथा व्यवस्था के हताश और धूरीहीन चरित्र  के खिलाफ है। कबीर ने सामाजिक विषमता के सभी रुपों का बहिष्कार किया है। साथी ही उन स्रोतों को जा विषमता की रचना करते हैं उन्हें तिरष्कृत किया है। उसने आर्थिक विषमता को चुनौती दी है। धर्म के नाम पर जो धोखाधड़ी चल रही है कबीर ने सीधे.सीधे उन पर आक्रमण किया है। समाज का वह अधिकारी वर्ग जो अपने को सुरक्षित रखने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपना रहे हैंए कबीर का सीधा आघात उन्हीं पर है।  कबीर  उग्र प्रखर यहीं होते हैं। यह महान परम्परा आज भी उस सरल जन समाज में लिप्त है जो खासकर प्रकृति के निकट है। जो शिक्षा के नाम पर सूचनाओं के विस्फोट से भ्रमित नहीं हैं। वस्तुतरू यह सूचनाओं का विस्फोट मनुष्य के खिलाफ एक साजिश है और मनुष्य की आत्मचेतना को खण्डित करने के लिए है। अब समय आ गया है कि इस मिथक का पर्दाफाश हो तथा इस प्रलंयकारी परिवर्तन के सभी पहलुओं पर प्रश्न चिन्ह लगाये जायें और एक नया मार्गदर्शन ढूंढ़ा जाये।पर यह काम तथाकथित आधुनिक युग के पूर्व निर्धारित संरचना के अंतर्गत नहीं हो सकता। यह खोज इन जीवंत प्रथाओं में करनी होगी जो आदिवासी या वनवासियों में पायी जाती है। ये गिरीजन इस चीज से अनजान हैं कि वे एक परम्परा को सरक्षित रखे हुये हैं। वे यह नहीं जानते कि वे इतना बड़ा काम कर रहे हैं। वे यह भी नहीं जानते कि इस एकीकृत या सम्मिलित राशि के विभिन्न घटक कौन.कौन से हैं और उसका स्रोत क्या हैघ् कबीर मात्र एक नाम है या एक अज्ञात व्यक्ति हो सकता हैघ् पर वह ठीक उसी प्रकार उसके प्राणों को छूता है जिस प्रकार चांद.सूरज या मीठी हवा। जैसे प्रकृति के इन उपादानों में उसके प्राणों का आशय अभिव्यक्त होता हैए ठीक उसी प्रकार कबीर की वाणी में उसका अंतरूस्वर मुखरित है। कबीर का ष्करघाश् अपने ताने.बाने में न जाने किस अतिन्द्रीय लोक के लिए एक बड़ा ही महीन चादर बुन रहा है। भौतिकता और आध्यात्मिकता के ताने.बाने पर वह चिरन्तन मानवता के लिए एकजीवनगीतए एक जीवनलय की सृष्टि कर रहा है। और रोबट बने आज के मानव में प्राण फूंक रहा है। तथा वह उस हरितिमा की सृष्टि कर रहा है जिससे यह लौह युग हरितिमा में बदल जाये ।   
             कबीर के संदेश वि जनीन होते हैं। कबीर की सुदृढ़ मान्यतायेंए भावात्मक सौन्दर्यए आर्थी व्यंजना आदि बातें जाने अनजाने क्या कुछ कहती और करती हैंए समझना मुश्किल है। कबीर की रचनायें सरल सम्वेदना की बेहद जटिल रचना हैं। अतरू जीवन में इनकी परिव्याप्ति को आंकलित कर पाना बेहद पेचीदा कार्य है। परंतु इतना कहा जा सकता है कि जनमानस पर कबीर का प्रभाव है। कहीं यह प्रभाव मूर्त है तो कहीं अमूर्त। कहीं ज्ञात है तो कहीं अज्ञात। कबीर ने जिस एकताए धार्मिक सहिष्णुता और जन चेतना की बात कही वह भारतीय समाज की पुरानी व्यवस्था है। भारतीय समावेशी संस्कृति कबीर की समाहारी जीवन दृष्टि में अभिव्यक्त हो रही है। सांस्कृतिक धार्मिक सहिष्णुता भारतीय संस्कृति की अपनी विशेषता है। उन्मुक्त जीवन चेतना और विराट् मानववाद आरण्यक संस्कृति की पहचान है। और यही कबीरीय चेतना का भी परिचय है। इन्हीं तत्वों को हम आदिवासी सामाजिक जीवन में प्रतिफलित पाते हैं। सदियों से एक ही आकाश के नीचे और एक ही भू.खण्ड पर रहते हुये जीवन की ये विभिन्न धारायें आपस में कितनी लेन.देन करती रहींए इसका आंकलन कैसे होघ् केवल इतना ही कहा जा सकता है कि कबीर ने भारतीय संस्कृति के प्राणाशय को अपनी वाणी का विषय बनाया। इसलिए सभी के साथ उसका गहरा रागात्मक संबंध है। राष्ट्रीय जीवन से लेकर प्रादेशिक जीवन तकए वि जीवन से लेकर आंचलिक जीवन तकए कबीर की वाणी का प्रसार कबीर स्वयं जन था। अतरू उसके पास जन.व्यक्तित्व था। वह जनसंचारक बनकर मार्ग.प्रदर्शक बना थाए और जननायक बना था। वह जन नायक बनकर जन के पास नहीं गया था। उसका यह जन व्यक्तित्व उसकी अपार जनसंचारक शक्ति का आधार थाण् सबसे बड़ी बात उसे अपने जन होने का गर्व था। कहीं भी आत्महीनता का भाव नहींय वरन् महाप्राणता का औदात्य है।जीवन का जहर उसने पिया था। इसलिए वह बहुत संजीदा हो उठा था। उसका पर.दुख.कातर मन उसे अथाह जन.समुद्र में सहज ही मिला देता था। और तब बुल.बुला फल कर समुद्र बन जाता था। कबीर था कहां वहां तो जन समन्दर गरज रहा था। इसलिए वह भारत की अस्मिता का प्रतीक बन गया।
एक साधारण जन बनकरए जन का जीवन जीकरए कामगर के रुप में जीविका उपार्जन करए कबीर ने जो क्रांति की उसमें एक विशाल आत्मा के दर्शन होते हैं। कबीर महामना था। उसके व्यक्तित्व की दिगंत प्रसारी शक्तियों का आकलन नहीं हो सकता। केवल इतना ही कहना चाहेंगे कि वह अद्भुत था।
आदिवासियों के साथ उसका संबंध जन्म जन्मांतर का था। इसलिए वह जाने अनजाने उनका हो गया। सब प्रकार की विषमताओं को समाप्त करने और एक न्यायोचितए संतुलित व्यवस्था को कायम करने के उद्देश्य से कबीर संघर्ष करता रहा। समानता की स्थापना हर स्तर पर होनी चाहिए . सामाजिकए धार्मिकए आर्थिकए राजनितिक आदि। इसी समानता की स्थापना के लिए कबीर अपना साम्यवाद देता है जो प्लेटो यच्संजव द्ध के साम्यवाद और माक्र्स के साम्यवाद से सर्वथा भिन्न है। कबीर का साम्यवाद . मूल्यवाद और मानववाद पर आधारित है। कबीर के साम्यवाद से सामाजिक दायित्व.बोधए पारस्परिक सहयोग एवं सामाजिक समानता आदि बातों की वृद्धि होती है। व्यक्ति और समाज के बीच टकराहट व तनावपूर्ण संबंध नहींय वरन् सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्थापित होता है। व्यक्ति अपने निजी जीवन से अधिक सामाजिक जीवन में जीना चाहता है। उसी में अपने जीवन की पूर्णता एवं सुख मानता है। जहां व्यक्तिगत स्वार्थ नहींए लोभ नहींए वहां सामूहिक रुप से सभी एक दूसरे की मदद करते हैंए और दुख कठिनाइयों को दूर करते हैं
लक्ष्य  एवं उद्देश्य
प्रस्तुत शोध आलेख के अध्ययन के  लक्ष्य एवं  उद्देश्य निम्नलिखित थे रू
1   छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिकए भौगोलिक विविधता को जानने का प्रयास करना ।
    आदिवासियों के सामाजिकए सांस्कृतिक जीवन का अध्ययन ।
3ण्    आदिवासी समाज के राजनैतिक ए आर्थिक संरचना पर प्रकाश डालना ।
4  आदिवासी समाज के विश्व .बंधुत्व की परिकल्पना को जानने का प्रयास करना  ।
5    भूमंडलीकरण और उदारीकरण  के दौर में कबीर की प्रासंगिकता का अध्ययन करना
6    कबीर जी को आदिवासी समाज के जन से जन संचारक के रूप में ग्रहण करना  और अपने दैनिक जीवन में उनके विचारों को आत्मसात करने की कड़ी को जानने का प्रयास करना 
पद्धति
      आदिवासी समाज में आदिवासी संस्कृति की नैसर्गिक छटा अतुलनीय है। वह एक सरल.सहज जीवनधारा और चेतनाधारा है। उसमें धरती की खुशबूए प्रकृति की विविधता और रमणीयताए नदियों की गतिशीलताए पहाड़ों की अदम्यताए एक सरल मानवीय संबंध दिखाई पड़ता है। प्रकृति के साथ उनके जीवन का केवल तालमेल ही नहीं वरन् तद्रूपता और नैसर्गिकता विद्यमान है। हर बदलता मौसमए हर बदलते त्यौहार उनके जीवन में एक नई मूच्र्छनाए ताललय नृत्य और जीवन की अनूठी भंगिमा लेकर आते हैं। ये प्रकृति पुत्र प्रकृति से कटकर रह नहीं सकते। अपने में ये आत्मतुष्ट और स्वावलंबी होते हैं। परंतु क्या वर्तमान समय में जनसंचारक कबीर के संचार को आदिवासी समाज अपने सांस्कृतिकए सामाजिकए आर्थिक जीवन आत्मसात किए हुये है इसका अध्ययन  छत्तीसगढ़ में महासमुंद जिले के आदिवासी क्षेत्रो में किया गया है । सूचनाओ का संग्रहण आदिवासी मुखियाओ से मौखिक साक्षात्कार एवं संबन्धित साहित्यों के अध्ययन से लिया गया है
परिणाम और निष्कर्ष
    कबीर की इन्हीं बातों की समानता हम आदिवासी समाज में देखते हैं। आदिवासियों की जो कम्यूनिटी लाइफ है अर्थात्  सामुदायिक जीवन उसमें रागात्मक सहयोगए समानताए सामूहिक जिम्मेदारी और सामाजिक रुप में दायित्व की पूर्ति आदि तत्व सहज रुप से विद्यमान होते हैं। अतरू आदिवासी सामाजिक संरचना व कबीर की सामाजिक दृष्टि में काफी समानता है।
अर्थव्यवस्था.       उदर समाता अन्न लैए तनहि समाता चीर।
                अधिकहिं संग्रह ना करैए ताकों नाम फकीर।
आदिवासी . इनकी समाज व्यवस्था में सामूहिकता एवं रागात्मकता का ऐसा ताना बाना है कि वे समूह में जीना पसंद करते हैं। इनकी अर्थव्यवस्था का आधार सहकारिता है। वे पर्यावरण के दोहन पर नहीं उसमें आजीविका पालन में विश्वास रखते हैं। इनमें लाभ अर्जित करने की परम्परा नहीं रहती है। वे सहजए सरल है और लोभ से दूर हैं।
                       साईं इतना दीजिएए जामें कुटुम्ब समाय।
                      मैं भी भूखा न रहूँए साधु न भूखा जाय।।
आदिवासियों की मूल पारंपरिक अर्थव्यवस्था कबीर के इस मूल विचार के समीप खड़ी है। वे आर्थिक संग्रहण से दूर हैं। उनकी आर्थिक नीति निजी आवश्यकता तक सीमित है। जहां साधु यसत्जन व्यक्तिए अथवा सामाजिक जिम्मेदारीद्ध के दायित्व की बात आती हैए इसे भी वे सामाजिक रुप से पूरा करते हैं। अर्थात इनकी सामाजिक.व्यवस्थाए आवश्यकता से अधिक संग्रहण परए सीधे तौर पर अंकुश लगाती है। इनकी अर्थव्यवस्था साम्यवादी व्यवस्था के अनुरुप है।
इस तरह कबीर की आत्मतुष्ट जीवन नीति आदिवासी समाज व्यवस्था का सार है
सहज ज्ञान और प्रत्यक्षानुभूति
मैं कहता आंखन की देखीए तू कहता कागद की लेखि।
मैं कहता सुरझावन हारीए तू राख्यो उरझाई रे।।
आदिवासी कागजी संस्कृति से अपरिचित है। वे नहीं जानते कि लेखी और अंगूठा की छाप का क्या अर्थ होता है। उनका ज्ञान तो सिर्फ प्रत्यक्षनुभूति पर आधारित होता है। जो हुआ सो देखा। जो देखा सो सच है। फिर सच को प्रमाणित करने की क्या जरुरत हैघ्
आज आदिवासी समाज इसी सच एवं इसी सच के प्रमाणीकरण के बीच उलझ कर शोषण का शिकार हो गया है। और शायद यही कह रहे हैं .
मेरा तेरा मुनंवाए कैसे एक होई रे।
इस तरह कबीर एवं आदिवासी दोनों ही अंखियन देखी बात को सच मानते हैं कागज लिखी विद्या को नहीं।

राजनीति में मूल्यवादिता
एक न भूलाए दोऊ न भूलाए भूला सब संसार
एक न भूला दास कबीराए जाके राम अधार।।
आदिवासी समाज में यह मूल्यवादिता उनके प्रत्यक्षज्ञान और प्रत्यक्षनुभूति के कारण आज भी जीवित है। इनकी परम्परागत पंचायत में किसी भी विवाद पर निर्णय सामूहिक होता है। जिससे एक न्यायपूर्ण और संगतिपूर्ण प्रशासन आदिवासी समाज में मौजूद रहा है . यही कबीर का ष्जनवादश् है।
श्रम श्रम ही ते सब कुछ बनेए बिने श्रम मिले न काहि।
सीधी अंगुलि घी जमोए कबहूँ निकसै नाहि।।
नागरिक स्वतंत्रता
खेलो संसार मेंए बांधि न सके कोय।
घाट जागति का करेए जो सिर बोधा न होय।।

समाज राजनितिक स्वतंत्रता के साथ वैचारिक स्वतंत्रता के भी हिमायती है। उनकी राजनीतिक स्वतंत्रता इस हद तक आदर्श है कि यहां मत.विभाजन से चुने जाने का कोई प्रावधान ही नहीं रहा है। अर्थात यहां सभी कार्य सर्व.सम्मति से होता हैं। यहां की राजनीति स्थिति सहज.सरल एवं स्पष्ट रही है। अतरू यहां प्रत्यक्ष लोकतंत्र की आधारशिला के रुप में स्वतंत्र नागरिकों की ग्राम सभायें कार्यरत हैं।
रागात्मकता
उड़ा बगुला प्रेम काए तिनका उड़ा आकास।
तिनका तिनके से मिलाए तिनका तिनके पास।।
 आदिवासी मौन वातावरण में गाते हैं तथा अंधेरे में नृत्य करते हैं। वे अपने कष्टोंए दुख और दुर्दशा को गीत एवं संगीत में ही डुबा देना चाहते हैं। यदि वे अलग.अलग नातचे तो मानो उन्हें एक दूसरे की जरुरत नहीं होती। इस तरह आदिवासी समाज में प्रेम तत्व की ही प्रमुखता है। यह प्रेम ही उनकी सरलता और सहजता में परिलक्षित होता है।
न्यायिक व्यवस्था
यह मन तो ऐसा निर्मल भयाए जैसे गंगा नीर।
पीछे.पीछे हरि फिरैए कहत कबीर कबीर।।
आदिवासियों की न्यायिक व्यवस्था अनौपचारिक होने के कारण अत्यंत सहज एवं सरल है। इस समाज में व्यक्ति अपने वचन से बंधा हुआ होता है। अतरू खुला हुआ है। न्यायिक व्यवस्थाए सदाचारी एवं मूल्यवादी है।
इस ह्रास शील युग में यआदिवासी मूल्यवादी न्यायिक चेतना ठीक उसी तरह है जैसे समाज में कबीर के पदद्ध
वीरता
खरी कसौटी राम कीए खोटा टिकै न कोई।
राम कसौटी जी टिकेए सो जीवित मृत होई।।
पर्यावरण की चुनौतियों ने आदिवासियों को पाठ पढ़ाया है कि यदि वे इन चुनौतियों को पराभूत नहीं करेगेंए उसे समाप्त कर देंगी। अतरू इस समाज में बच्चों से यह अपेक्षा रखी जाती है कि जब वह मवेशी चराने के लिए जंगल ले जायें और किसी जावनर का आक्रमण हो उस स्थिति में जानवर को भगाने की वीरता उस बालक में होनी चाहिए। क्योंकि यहां कोई खोटा टिका नहीं रह सकता।
धर्म
जहं.जहं डोलौ सो परिकरमाए जो कुछ करों सो पूजा।
जब सोवों तो करौं दण्डवतए भाव मिटावों दूजा।।
आदिवासियों का धर्म अत्यंत सहज धर्म है। वे प्रकृति की पूजा करते हैं। इनका मूलधर्म प्रकृति से जुड़ा है। प्रकृति के जिन रुपों को और चमत्कारों को वे नहीं समझ पाते हैंए उसकी पूजा शुरु हो जाती है। इनकी पूजा में न कोई कर्मकाण्ड होता है और न कोई आडम्बर। वे कबीर की तरह मानवतावादी हैंए और नर यसमाजद्ध में नारायण यजीवन अस्तित्वद्ध को देखने की उनकी दृष्टि भी है
नश्वरता
चंदा मरिहैंए सूरज मरिहैए मरिहैं सब संसार।
एक न मरिहैं दास कबीराए जाके राम आधार।।
आदिवासी भी जीवन की नश्वरता को पूरी तरह स्वीकार कर गृहस्थ.जीवन की गरिमा को कम स्वीकार करते हैं। वे कबीर की तरह मुक्त एवं वीतरागी हैं। मृत्यु की सार्वभौमिकता को स्वीकार कर वे गाते व नृत्य करते हैं। यहां मानव जाति का निवास है। यहां सभी मरणशील है।
कबीर ने जिस वैचारिक स्वतंत्रता की बात कही है . वह आदिवासियों का जीवनानुभूत सत्य है। क्योंकि गिरिजनए प्रकृति के खुले प्रांगण में रहते हैं। प्रकृति की उन्मुक्तताए सहजताए जीवन्तता और विस्तार आदिवासी जीवन में निसर्गतरू विद्यमान है। उनकी जीवन सरिता जलप्रपात बनकर गिरती है। तो कभी कांटों से उलझती हैए कभी गहन उपत्यकाओं में से गुजरती हैए तो कभी समतल.भूमि पर अपनी धीर.मन्थर गति से जीवन सफर की रहस्यभरी गाथाओं को रुपायित करती है। यह शैवालिनी कभी शैशव की कोमल छटा बनकर प्रकट होती हैए तो कभी अल्हड़ किशोरी बनकर कुसुमित कानन से उलझतीए लरजती बहती हैए तो कभी यौवन के उन्माद से उफनती उन्मादिनी बनकर सब कुछ बहा ले जाती हैए तो कभी श्वेत कुन्तल सी निरमल जल की लड़ियों से जीवन का गंभीर आशय खोलती है।यदि इन्होंने फूलों से हंसना सीखा तो भौरों से गाना। सूरज से जीवन की ऊष्मा ली तो चांद से जीवन की शीतलता। इस तरह प्रकृति.सुन्दरी उनके जीवन को संवारती और बनाती है। महाकाश और महाप्रकृति का यह खेल इनके जीवन में लाइट एण्ड शैडो की रचना कर जीवन का रहस्य भरा भावभीना अनुभव कराते हैं।
         कबीर की ही तरह आदिवासियों के पास शास्र ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान की पूंजी है। वे भी कबीर की तरह शास्र वाक्य का नहीं मानुषी वाक्य का प्रयोग करते हैं। वे भी शास्रीय दुनियां में नहीं माटी दुनियां में रहते हैं। उनकी दुनियां भी नन्दन कानन नहीं वरन् पथरीला वन प्रान्तर है। अतरू इन प्रकृति.पुत्रों की कबीर के साथ संगति नहीं होगी तो और किस के साथ होंगीघ् किसी अन्य के साथ होन अत्यंत कठिन है। कबीर जैसा जन यदि आदिवासियों के साथ मिलकर तद्रूप नहीं हुआ तो फिर और कौन होगाघ् अतरू यदि कबीर आदि संत हुये तो यह आदि समाज।
      आदिवासी लाभ की प्रवृति से दूर है। इनके लिये परोपजीवी व परावलम्बी होना अनुचित है। यहां तक इस समाज में भीख मांगने की प्रथा भी नहीं है। श्रम इस समाज की पूंजी है। पुरुषए स्रीए बच्चे सभी अपने.अपने अनुकूल कार्य करते हैं। अतरू परिवार में श्रम विभाजन का उदाहरण देखने को मिलता है। इसा का परिणाम है कि . आदिवासीए गांव और समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं कर लेते हैं। इन गांवों में आर्थिक साधनों का केन्द्रीयकरण भी नहीं हुआ है। अतरू आदिवासीयों के द्वारा श्रम को प्रमुखता देना . कबीर के साम्यवाद की छवि को ही उभारता है। क्योंकि कबीर का साम्यवाद सदा से ही चली आने वाली भारतीय सामाजिक आर्थिक.नीति को ही अभिव्यक्ति हैए जिसमें संसाधनों का अकेन्द्रीयकरण यछवद.बमदजतंसपेंजपवद द्ध मिलता है। यही गांधी जी की दृष्टि भी है।
                    इस यंत्र युग के पास न आकाश हैए न धरतीए न हवाए न पानीए न प्रकृतिए न वायुमण्डल। आज पाताललोक भी सुरक्षित नहीं है। वहां विस्फोट है। सब कुछ दूषितए सबकुछ जीवन.नाशक है। सब कुछ मानवए उसके जीवनए उसके इतिहास और उसकी संस्कृति के खिलाफ हैं। मशीनी.सत्ता का बोल.बाला है। कम्प्यूटर.कल्चरद्ध धरती से आसमान तक व्याप्त है। भोगवादए लोभवादए साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के साथ अब अंतरिक्षवाद भी जूड़ गया है। पता नहीं भूमण्डलीयकरण में और क्या समा जाएगा।अंतरिक्ष युग में छोटी सी धरती ध् बौना सा मानव ध् उसका नन्हा सा घरौंदा ध् और दुर्वा.दलों का शबनबी बुलावा ध् महाकाश के अनंत विस्तार में कहां स्थान पाएंगेए कौन जानेघ् केंप्सुल में बंद अंतरिक्ष यात्री को नया दिगन्त मिलेगा या नहींए यह भी कैसे कहेंघ् यह इस्पाती अजरता.अमरता और यह अंतरिक्षीय.जीवन क्या एक बूंद आंसू के भार से कंपित तृण की सजलता दे सकेंगेघ् क्या आज दिशाहीनए घबरायाए हारा.थका और विकल मानवए अपने लिए कोई नयी दुनिया ढूंढ़ पाएगाघ् यह तो समयाधीन है
इस युग की चल रहीए इस अमानवीयकरण की प्रक्रिया में मनुष्य के संसारए उसके जीवनए उसके आदर्शए उसकी भावनाओंए उसके कोमल रिश्तों तथा नन्हें.नन्हें सुख.दुखों के लिए कोई स्थान नहीं है। वह अपना मालिक भी नहीं है। वह विराट् मशीन का पुर्जा मात्र है। उसके जीवन के साथ मशीन नहं चलतीए पर मशीन के साथ उसका जीवन चलता है। ऐसे समय में छत्तीसगढ़ की आरण्यक.संस्कृति मानव को एक पल विश्राम लेने के लिए अपनी हरी.भरी वादियों में बुला रही है। यहां की उदारमानवताए सरल जीवनए धार्मिक सहिष्णुताए समावेशी चरित्रए मूल्यवादी दृष्टि और मानवीय संबंधों की सजलता आदि बातें इस जले.भुने वि को एक हरित.निकेत की ओर बुला रही हैं। अभी यह प्रदेश व्यापारिक दुनिया की होड़ा.होड़ी और सौदेबाजी से काफी दूर है। यहां के बनवासी अपने हरे.भरे वातावरणए सीमित आवश्यकताए क्षीण आर्थिक स्रोत और एक अंतहीन दुर्दान्त संघर्ष के बीच भी प्राण भरा और खुशनुमा जिन्दगी जीते हैं। छत्तीसगढ़ की शस्य.श्यामला धरती जन्त्रा.रुढ़.विश्व को हरियाली दे रही हैं। उसकी नदियां उसका गौरवगान कर रही है। उसके फूलों से सुवास लेकर बनमाली इस बासन्ती बहार में तनिक विश्राम के लिये सभी को बुला रहा है। लोगों की सहजता और उनकी सहृदयता सभी को सरल ढंग से अपना बना लेती है। संघर्षरत इस वि को छत्तीसगढ़ की संस्कृति अपने वनफूलों का एक गुलदस्ता उपहार के रुप में देती है। प्राकृतिक जीवन में लौट आने के लिए।श्श् अपनी परंपराए जीवनधारा और मान्यताओं को सदा सुरक्षित रखने वाली यह धरती हमें केवल अतीत के रहस्यलोक में नहीं ले जाती है वरन् आज के जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए एक समाधान भी देती है। समय के साथ जितनी सांस्कृतिक व धार्मिक धाराएं यहां आई वे सब इराकी जीवन.धारा के साथ मिलकर एकाकार हो गई है। इन्हें अलग कर पाना कठिन है। आज आतंकवाद और हिंसावाद के नाम पर न जाने मनुष्य के कितने गलत चेहरे दिखाई पड़ रहे हैं। संस्कृति और धर्म के नाम पर न जाने कितनाए अनुचित व्यापार चल रहा है। ऐसे समय में छत्तीसगढ़ की धार्मिक.सहिष्णुताए सह.अस्तित्वए सामंजस्य पूर्ण जीवनए एक संतुलित.दृष्टि आदि बातें वि के लिए एक जीव स्वप्न है। यदि हमारा यह छोटा सा प्रयास छत्तीसगढ़ की इस प्रकृति या भूमिक को विश्व.समाज के सामने प्रस्तुत कर सका तो हमारा प्रयास सार्थक हो जायेगा।पर चिंता की बात यह है कि आज उस पर हर ओर से प्रहार हो रहा है। छत्तीसगढ़ की इस चेतना और विशेषता को हम किस प्रकार संरक्षित रख पायेंगे। और भविष्य में मानव जीवन के विरोधी तत्वों के खिलाफ एक प्रतिबल के रुप में खड़ा कर पायेंगे। यह हमें गम्भीरता से सोचना होगा और प्रयास करना होगा। यह आज की स्थितियों में असम्भव को सम्भव करना है। न जाने भविष्य के अंतर में हमारे लिए क्या संचित हैघ्
                                         
                                                             संदर्भ ग्रंथों की सूची
                      
1 अग्रवाल रू डॉण् सालिक राम संत कबीर और कबीर पंथ रूप्रकाशक ओम प्रकाशन रायपुर छत्तीसगढ़द्ध रू १९९७
2 एल्विन वेरियर मिथ्स आफ मिडिल इंडियन पुर्नमुद्रण वन्या प्रकाशन भापाल  १९९१
3 गोस्वामीए भानु प्रताप गुरु रू सुनो भाई साधो रू यश्रीगृन्ध मुनि नाम साहेब का प्रवचन संग्रहद्ध रू संकलन दामाखेड़ाए रायपुर यछण्गण्द्ध  २०००
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5 चंद्र सतीश रू मध्यकालीन भारत रू राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् रू नई दिल्ली  १९९०
6 तिवारी रू डॉण् शिवकुमार रू मण्प्रण् की जनजातियां रू मण्प्रण् ग्रंथ अकादमी भोपाल  १९९८
7 तिवारीए श्रीमती भारती रू छत्तीसगढ़ी लोकगीतों की परम्परा.वैविध्य के संदर्भ में गौरा गीतों का सांस्कृतिक अनुशीलन अप्रकाशित शोधग्रंथ गुरुघासीदास विश्व विद्यालयए बिलासपुर  २००१
8 दिनकरए रामधारी सिंह रू संस्कृति के चार अध्याय रू उदयाँचल राजेन्द्र नगरए पटना  ४
9 महापात्र रू मनीषा रू जिला दंतेवाड़ा के आदिवासियों का सामाजिक परिवर्तन रू अप्रकाशित शोध प्रबंध  गुरु घासीदास विश्वविद्यालय रू बिलासपुर  २००१
10 शर्माए डॉण् रामगोपाल रू छत्तीसगढ़ दपंण  श्री साई सदन बिलासपुर यछण्गण्द्ध  २००१
11 शर्माए डॉण् एलण्पीण् रू मध्यकालीन भारत का इतिहास  लक्ष्मी नारायणए आगरा . २ रू १९८६
12 सिंहए तजीन्द्र  आदिवासी संस्कृतिए समाज एवं कल्याण मधुर प्रकाशन कचहरी रोड दुर्ग
13 शुक्लए आचार्य रामचंद्र रू हिन्दी साहित्य का इतिहास रू नागरी प्रचारिणी सभा  वाराणसी  १९९९
14 शुक्लए हीरालाल रू आदिवासी संगीत  मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल  १९८६15 सोनी जे आरण् रू सत्यनाम की दार्शनिक पृष्ठ भूमि  प्रयास प्रकाशन बिलासपुर




Friday, March 15, 2013

                                  अंधविश्वास का समाजशास्त्र व जनमाध्यम






मेरा यह शोध आलेख इंडियन स्ट्रीम आफ रिसर्च जर्नल शोलापुर में प्रकाशित हो चुका है ।

                                               शोध-सारांश

तर्क,युक्ति,विवेक ,अनुसंधान,प्रयोग और परीक्षण के बिना किसी भी समाज का विकास नहीं हो सकता। मानव जीवन के प्रारम्भ से अपने इन्ही विश्वस्त आत्मविश्वास पर खड़ा होकर आगे बढ़ा है। इन्ही के आधार पर मानव समाज में जिज्ञासा और शक्ति आता है कि वे अभी तक सही समझे जाने वाले सिद्धांतों को चुनौती दे सके, नये सिद्धांतों की रचना कर सके । परंतु आज मानव समाज सारे सिद्धांतों को परे रख तर्क रहित समाज गढ़ने में लगा है। संचार के सम्प्रेषण से मानव समाज तर्क- वितर्क एवं सभ्यता के नये आयाम को प्राप्त किया वही दूसरी  ओर आज जन संचार माध्यमों के द्वारा मानव चेतन में अंधविश्वास, कुतर्क, सामाजिक भेदभाव,छुवाछूत, लिंग भेद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, जैसे कुरुतियों को समाज में स्थापित करने में लगा हुआ है समाज में जनमाध्यमों की स्थापना का मूल उद्देश्य शांति प्रिय समाज का निर्माण करना था काफी हद तक जन माध्यम अपने कार्य में सफल भी हुये है पर वर्तमान में बाजारवाद के जन माध्यमों में गहरी पैठ ने चेतनशील समाज के स्थान पर अंधविश्वास को हमारे समाज में अपने आर्थिक हितो के कारण अंधविश्वास का समाजशास्त्र स्थापित करने में अपनी भूमिका निभा रहा है।

प्रस्तावना-विज्ञान का व्यापक रूप कल्याण की अवधारणा को समग्र समाज में स्थापित करता है। परन्तु आज संचार माध्यमों एवं नवीन तकनीको के मध्य यह उलझ सा गया है। जहां नवतकनीकों का प्रसार काफी तेजी से हो रहा है। वहीं दुसरी ओर समाज में तर्क चेतना के स्थान पर अंधविश्वास रूढीयां, जातिवादी जैसी अभिषप्त परम्पराएं घटने के बजाय तेजी से अपना घर मजबूत कर रही है। भारतीय संस्कृति के रक्षा के नाम पर  रुढ़िवादी परम्पराओं को तथाकथित सभ्य समाज ने अपने कंधो पर उठा लिया है जिसके कारण तर्क चेतना का हास होता जा रहा है,  अलगाववाद, दंगे, लैंगिग असमानता, भेदभाव, छुवाछूत,सांप्रदायिकता, में बेतहासा बढोत्तरी हो रही है। मानव समाज पशुवत जीवन को चुनौति देकर अपने जीवन शैली में आश्चर्य -जनक परिवर्तन लाता रहा है तथा एक तार्तिकता की ओर सतत् बढता रहा है। लेकिन दूसरी तरफ वह अतांर्किकता को सभ्यता के प्रारंभ से ही अपने जीवन में आत्मसात किये हुए है आदि काल में मानव समाज का कार्य क्षेत्र व्यापक नही था इसलिए अंधविश्वास भी कम था। जैसे-जैसे मानव समाज का कार्य क्षेत्र बढता गया वैसे-वैसे अंधविश्वास का जाल भी फैलता गया और इनके अनेक रूप भी समाने आते गये। अंधविश्वास को हम सार्वदेशिक और सर्वकालिकता में महसुस कर सकते है। यह विज्ञान के ज्ञान रूपी प्रकाश में भी छद्म आवरण ओढे रहता है इसका सर्वथा उच्छेद नही होता। अंधविश्वास मानव समाज के संग-संग कब से चलने लगा है इसका सही समयाक्रम की ठीक-ठीक निर्धारण करना असम्भव है परन्तु ऐतिहासिक साक्ष्य से पता चलता है कि मानव सभ्यता के समाजिक विकास के फलस्वरूप राजसत्ता के स्थापना के उपरांत यह महसुस होने लगा था कि जनता न किसी से भय खाते थे नही किसी नियम को ग्रहण करने के लिए तैयार थे, न ही राजा की राजतन्त्र को स्वीकार कर रहे थे। उन्हे दण्ड का भय नही था यही वह ऐतिहासिक संदर्भ है  जब जिस काल में अंधविश्वास को सृजन किया गया। प्रारंभ में अंधविश्वास को संस्कार और सामाजिक जीवन मूल्य से अलग रखा जाता था। परन्तु कालांतर में अंधविश्वास ने मानव जीवन में इतनी अधीक पकड़ बना ली कि हम अंधविश्वास को अपने जीवन का एक हिस्सा मानने लगे। अंधविश्वास का क्षेत्र काफी बड़ा है जिसमें सामाजिक मान्यताएं, सामाजिक आचार-व्यवहार से लेकर राजनीति, अर्थशास्त्र, साहित्य, जनमाध्यम, व्यापार, खेल तक इसके कार्य क्षेत्र में है। जो अपने प्रभाव के कारण समाजिक क्रांति को इस कदर जकड़ के रखा है कि मानव आज इसे एक सर्वशक्ति सम्पन्न आराध्य के रूप में मान्यता प्रदान कर चुका है। मनुष्य अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्म फल के सिद्धांत में इस कदर फसा हुआ है कि इससे बाहर आना ही नहीं चाहता या इस अंधकार से बाहर हमें हमारे धर्म नही निकालने देना चाहता, धर्म भाई-चारा बढाने वाला दया और नैतिकता का प्रसार करने वाला है ,परन्तु कालान्तर में धर्म का रूप बदल गया क्योकि जैसे ही धन- दौलत सत्ता, सैनिक ताकत, तथा शासनाधिकार से धर्म पुरी तरह से सुसज्जीत हुआ धर्म स्थापित मान्यताओ तथा उसके विरूद्ध बोलने व प्रसार करने वालो के विरूद्ध समुचा धार्मिक समाज खड़ा हो गया एवं(क्व् छव्ज् म्ग्।डप्छ व्छस्ल् ठम्स्प्टम्) अंधश्रद्धा , को अपना मूलमंत्र बना लिया । जिस यूनानी सभ्यता व वैभव की बात आज हम करते है उन्ही के दार्शनिक-सुकरात जिन्हे जहर का प्याला देकर मौत की सजा दी गयी। यह अचेतन प्राचीन काल से ही चली आ रही है कि तर्क चेतन समाज कि स्थापना के विरोध में कभी राजा-महाराजा तो कभी जंगली लडाकु कबीलाई समाज ने विरोध किया लेकिन सबसे अधिक और भयानक रूप में तर्क चेतना का विरोध धर्म एवं धार्मिक संस्थानो ने किया जिसके फलस्वरूप तर्क-चेतना आधारित समाज कि स्थापना हेतु गैलिलयो, कोपर निकस, पाइथागोरस, सुकरात रोजर बेकन, ब्रूनों,शंभूक, कबीर, गुरूघासीदास, महात्मा फुले, आम्बेडकर,महात्मा गांधी, जैसे दार्शनिक धर्म को चुनौति देते हुए हमारे समाज दिखाई देते है। जिन्हे सामाजिक रूप से धर्म से भयंकर विरोध का सामना करना पड़ा। रोजर बेकन कहते है कि ‘‘हे परमेश्वर इन लोगो को तु उनके अज्ञान से मुक्त कर ’’ यही से एक नये विचार धारा का आरम्भ हुआ जिसे त्म्स्म्।ैड का नाम दिया गया। किसी भी धर्म का अर्थ मानव सहिष्णुता है धर्म मानव समाज को यह सीख दे कि सुख का उपभोग का प्रमाण क्या हो धर्म में धार्मिक कट्टरता हानिकारक है सभी मानव समाज को धर्म की आवश्यकता है परन्तु विज्ञान एवं सच्चा धर्म एक दुसरे के पुरक के रूप मे स्थापित हो यही धर्म एवं विज्ञान की पहली और आखरी पहल होनी चाहिए। दुसरी ओर मानव समाज संचार क्रांति के फलस्वरूप सामाजिक जीवन में सुख समृद्धि के चरम के ओर निरन्तर बढ रहा है वही एक ऐसा वर्ग भी है जो अभाव ग्रस्त जीवन जाने के लिए विवश है यह गैर-बराबरी हमें सभी क्षेत्रों में दिखाई पड़ता है। विशेषकर विज्ञान के क्षेत्र में, विज्ञान का चंद लोगों हाथों का बिलौना बन कर रह जाना जिससे भयंकर प्रताड़ता व दुख अभाव ग्रस्त वर्ग झेल रहा है। हम अंतरिक्ष में बसने की बात करते है पर अंधविश्वास हमें इस कदर जकड़ रखा है कि हम इससे बाहर नही निकलना चाहते है न विरोध कर पाते है ।देश में डायन प्रथा अधिनियम- 2005  में लागू किया गया मगर यह सिर्फ किताबों तक सीमित है डायन के नाम पर महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाया जाता है। आखें फोड दी जाती, गांव से पुरे परिवार को बाहर कर दिया जाता है या पुरा का पुरा गांव मिलकर उस प्रताड़ित महिला को जान से मार डालता है।

इस कुप्रथा को रोकने के लिए सरकार प्रयासरत तो है पर अभी तक कोई अच्छी परिणाम निकलकर हमारे समक्ष नहीं आ पाया है। डायन प्रताड़ना में छत्तीसगढ, झारखण्ड, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल मध्यप्रदेश, असम, बिहार,राजस्थान जैसे राज्य अव्वल है यह शिकार खासकर उन महिलाओं को बनाया जाता है जो विधवा होती है जिसे या तो परिवार के लोग ही डायन घोषित करते है या चंद दबंग लोग जो उनके जमीन जायदाद के साथ उस महिला के इज्जत पर बुरी नजर रखते है। इस प्रकार के प्रकरण में पुरा का पुरा गांव सहभागीता निभाता  है ,जिससे कानूनी कार्यवाही नहीं भी हो पाती । संयुक्त राष्ट्र संघ के रिपोर्ट अनुसार भारत वर्ष में 10 वर्षो  में करीब 12000 महिलाओं को डायन घोषित कर मार डाला गया। छत्तीसगढ़ में  डायन प्रताड़ना के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं यह प्रताड़ना न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में है बल्कि शहरी क्षेत्र भी अछुता नही है यह इस कदर हावी  है  कि पहले बार कोई ग्रामीण शहर में बसने आता है तो पता लगाया आता है कि इन्हे ग्रामीणों ने पूर्व ग्राम से डायन घोषित कर तो नहीं निकाला है और एक पड़ोसी की भावना न रखकर उनके साथ  रखकर अच्छा बर्ताव नही किया जाता जब तक उन्हे प्रमाण पत्र न मिल जायें की ये लोग डायन घोषित नही है।

( छत्तीसगढ) बलौदा बाजार जिले के ग्रांम सौरा में पति- पत्नी की आखें ये डायन का इल्जाम लगाकर फोड दी गयी, 2001 में महासमुन्द शहर में सरे आम महिला को निर्वस्त्र कर पूरे गांव में घुमाया गया उस घटना के बाद  उस महिला ने आत्म हत्या कर ली। डायन महिला को सजा के नाम पर  गर्म तेल में झोंक दिया जा रहा है। या उन्हें मैला खिलाया जा रहा है। इस प्रकार के मामले राज्य महिला आयोग और केन्द्र दोनों में पहुंच तो जाता है पर नतीजा शून्य ही रहता है। सरगुजा जिले में ग्राम शुद्धि करण के नाम पर 50 महिलाओं को नचाया व उनके बाल काट दिये गयें यह क्रम 9 दिनों तक चलता रहा ग्राम सरपंच के शिकायत पर पुलिस आ तो गयी पर पुलिस निरिक्षिक बैगाओं से प्रभावित होकर स्वयं नाचने लगा। न जाने कितने मौते डायन के नाम पर होती है जिसका हम आंडड़ा प्रस्तुत नही कर सकते और यह खेल बदस्तुर खेला जा रहा है। महिलाओं के सशक्ति करण के लिए पंचायतो और राजनैतिक संस्थानों में 33 प्रतिशत भागीदारी की बात करते तो है पर  अंधविश्वास के कारण शोषण, कन्या-भ्रूण हत्या, जिसमें कन्या भ्रूण को नाली में बहा दिया जा रहा है या कुत्तों को खिलाया जा रहा है। ऐसे में महिलाओं के कल्याण  हेतु बने कानून निरर्थक साबित हो रहें है। अंधविश्वास को दूर करने के लिए स्वयं महिलाओं की आगे आना होगा यह न केवल सामाजिक कुरुति है बल्कि महिलाओें के अस्तित्व को भी समाप्त कर देने वाली असहनीय पीड़ा है जिसे महज महिला सशक्तिकरण के नाम पर संगोष्ठीयां आयोजित कर हम इस अभिशप्त कुप्रथा को समाप्त नहीं कर सकते इसके लिए हमें जमीनी स्तर पर जन आंदोलन की आवश्यकता होगी तभी हम महिलाओें को सही सम्मान व अधिकार दे पायेगें। अंधविश्वास से पैदा होने वाली उस परिणामों के रोकधाम हेतु औषधि और जादूई उपचार (आपत्ति जनक विज्ञापन) अधिनियम 1955, भारतीय दण्ड संहिता (420) ,डायन अधिनियम 2005 के जन्मध्यमों के द्वारा व्यापक प्रचार-प्रसार के न होने से ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों में परम्परागत सोच व तर्क रहित सोच के कारण अनेक प्रकार के अमानवीय व असामाजिक अंधविश्वास प्रचलित है। इनमें टोना, झांड फूक के आड़ में ठगी, धन दोगुना करने की चाल, गड़े धन निकालना ,ताबिज, चमत्कारिक पत्थर तथा पशु बली जिसमें कछुआ, सांप, उल्लू, व नर बली जैसे कुप्रथा से महिला प्रताड़ना एवं हिंसा धोखेबाजी से धन उगाही के साथ शारारिक शोषण किया जाता है। समयावधि में चिकित्सा न होने से असमय मृत्यु काफी होती है जो समाज के साथ-साथ विज्ञान के लिए चुनौति है। आज पूँजीवादी वर्ग अपने बाजार के लिए जिन दो चीजों का प्रचार सबसे ज्यादा कर रही है वह है धार्मिक सम्प्रेषण की पद्धति और दुसरा अंधविश्वास इन दोनों के मेल से उसभोक्तावाद का तेजी से विकास हो रहा है वही दुसरी ओर अंधविश्वास के प्रति विश्वास बढ़ता जा रहा है। पूंजीवाद अपनी सामान्य प्रकृति के अनुसार अंधविश्वास को भी वस्तु के रूप में बदल देता है। उसे संस्थागत रूप दे देता है। अंधविश्वास को कामुकता और रोमांच के साथ सम्प्रेषित करता है ।यह कार्य संचार माध्यमों के संगठित औद्योगिक माल के उत्पादन में करता है। जिससे सामाजिक असुरक्षा ,भेदभाव और तनाव में बढोतरी होगी इसका मुख्य कारण यह है कि आज अंधविश्वास को मास कल्चर ने अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बना लिया। अंधविश्वास को सम्प्रेषित कर जनमाध्यमों ने अपना विकास काफी तेजी से कर रहे है। पहले राजसत्ता अंधविश्वास से जनता को डरा-धमकाकर धन जुटाता था वही दुसरी ओर जनता के दिलो दिमाग पर शासन करता था। आज इसमें कोई विशेष बदलाव नही आया है जनमाध्यमों ने अपने सम्प्रेषण से वही हालात पैदा कर दिया है। जिसमें जनमाध्यम गणेश जी का दुग्धपान, अपाहिज लड़की का पत्थर से शादी ,एश्वर्या राय का पेड़ से शादी जैसे अंधविश्वास को टीआरपी  के फेर में पड़कर बडे शान से सम्प्रेषित कर रहा है। आज भारतीय जनमाध्यम बाबाओं से भरा पड़ा है जिसके ऊपर अनेकों संगीन आरोप लगे है उन्हें ये जनमाध्यम विज्ञापन के रूप में प्रसारित कर रहे हैं। जनमाध्यमों का विकास चेतन समाज को गढने के लिए हुआ था आज वह चेतना के स्थान पर अलौकिक, अतार्किकता  को हमारे समाज में सम्प्रेषित कर रहे है जो किसी भी प्रकार से चेतन समाज का निर्माण करने में सहायक सिद्ध नही है हो सकते। अंधविश्वास से बैद्धिक अधकचरापन उत्पन्न होता है। आज जनमाध्यम विज्ञान और विज्ञान सम्मत चेतना के बजाय मिथकीय चेतना के निर्माण करने में लगा हुआ है। विज्ञान को सत्य के खोज से हटाकर विलासिता , भौतिकता और विनाशक युद्ध के साजों सामान तक सिमित किया जा रहा है। बेशक मानव जीवन की गुणवत्ता को बढाने में जनमाध्यमों ने अपनी भूमिका का निवर्हन किया है, दुसरी ओर उसे भुखे, बेघर, अशिक्षित, शोषित समाज को विज्ञान के उजियारे में लाने में अपनी भूमिका का निवर्हन करना होगा। विज्ञान के अधिकारों को आम जन तक पूंजीपतियों के हाथों से निकाल कर जन मानस के कल्याण हेतु सम्प्रेषित करना होगा।

निष्कर्ष-अतः देकार्त के अनुसार’ किसी भी सत्य को अंतिम सत्य के रूप में न स्वीकारें चाहे विज्ञान हो दर्शन अथवा धर्म प्रश्नवाचक भाव से उसमें प्रवेश करें। सत्य आधारित ज्ञान हासिल करने की प्राधमिक पद्धति है संदेह, निरिक्षण, जांच-पड़ताल तथा सतत् अनुमत ।जनमाध्यमों को बाजार के दबाव से निकल कर तर्क चेतना को अपना हथियार बनाना होगा  साथ ही वैज्ञानिक व ज्ञान- विज्ञान से जुडे व्यक्तिओ, संस्थानों को अंधविश्वास को समाज में शास्त्र के रूप में प्रचारित करने से रोकना होगा जिससे, एक तर्क चेतन सामाज का निर्माण हो सके है। जिसमें आपसी सौहार्द्र, भाई-चारा व जीवन की गरिमा, मानवतावाद, गैर आर्थिक बराबरी का सभ्य चेतन समाज हों।

Wednesday, March 13, 2013

 विज्ञापन का मायाजाल और आम आदमी


आजकल अक्सर लोग कहते हैं, चारों ओर बाज़ार पसरा है, विज्ञापन आकृष्ठ करते हैं, बच्चे मंहगे मंहगे सामान ख़रीदने की ज़िद करते हैं। आवश्यकता न होने पर भी लोग फ़ालतू सामान ख़रीद लेते हैं। कभी लोग पुराने वख्त को  याद करने लगते हैं जब बाज़ार और मीडिया की पंहुच आम आदमी तक नहीं थी।
संतोष एक निजी गुण है, यदि संतोष आवश्यकता से अधिक बढ जाय तो व्यक्ति को अकर्मण्य sबना देता है। व्यक्ति  न अपने लियें कुछ करना चाहता है न परिवार के लियें न ही समाज के लियें। संतोष हो ही नहीं और जीवन मे बहुत जल्दी जल्दी बहुत कुछ पाने की या हासिल करने की इच्छा बलवती हो जाय तो व्यक्ति भ्रष्टचार या अपराध की तरफ़ मुड़ सकता है।
जब आर्थिक उन्नति होती है तो उत्पादन बढता है, यह निश्चय ही विकास का संकेत है। उत्पादन बढने से अधिक लोगों को रोज़गार मिलता है, उनकी ख़रीदने की क्षमता बढती है। जब बाज़ार मे  तरह तरह के उत्पाद हैं तो बिकने भी चाहियें। जब पहले उत्पादन कम था, ख़रीदने के लियें विकल्प भी कम थे  इसलियें विज्ञापन की आवश्यकता भी कम थी। विज्ञापन देने के माध्यम भी कम थे, पर विज्ञापन कोई नई चीज़ भी नहीं है,  इससे बाज़ार मे उपलब्ध सामान की जानकारी उपभोक्ता को मिलती है। पहले जब हर छोटी बडी़ चीज़ की बुकिंग करानी पड़ती थी, राशन मे सामान मिलता था, एक फ़ोन लगवाने के लियें महीनों प्रतीक्षा करनी पड़ती थी, तब विज्ञापनों का विस्तार और महत्व आज के मुक़ाबले काफ़ी कम था।  जब बाज़ार मे तरह तरह के उत्पाद मौजूद हैं, कड़ी प्रतियोगिता के बीच अपने उत्पाद को बेचना कोई आसान काम नहीं है।  हर उत्पादन को बेचने के लियें विज्ञापन प्रचार का माध्यम होता है। विज्ञापनो के सौजन्य से ही हम समाचारपत्र और पत्रिकायें इतने कम पैसों मे पढ़ पाते हैं टी.वी. और रडियो के इतने सार चैनल भी विज्ञापनो से प्राप्त धनराशि के द्वारा ही हम तक पहुँते है, विज्ञापन व्यवसाय जगत का एक  अहम हिस्सा हैं।  विज्ञापनदाताओं के लियें भी एक आचार संहिता का पालन करना आवश्यक होता है ,   जैसे अपने माल की तरीफ़ मे अतिशयोक्ति न करें, विज्ञापन अश्लील न हों या वो किसी की भावनाओं को ठेस न पंहुचायें आदि।  विज्ञापन जगत भी बहुत सारे लोंगों को रोज़गार देने का ज़रिया भी है , इसलियें विज्ञापन के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। विज्ञापनदाता और उत्पादकों का तो उद्देश्य ही यही  होता है कि उनके विज्ञापन पर अधिक से अधिक लोगों की नज़र पड़े,  उनके उत्पाद को ख़रीदने की इच्छा जगाई जाय। ये लोग बस अपना काम करते हैं और कुछ नहीं। क्या ख़रीदना है क्या नहीं इसकी ज़िम्मेदारी तो अंत मे उपभोक्ता की ही होती है।
आर्थिक उन्नति के साथ बहुत से लोग काफ़ी धनी हो गये है,ये लोग अगर खुलकर ख़र्च करते हैं तो वो पैसा किसी न किसी रूप मे किसी के रोज़गार देन का माध्यम बनता है। बस इसका एक ही पक्ष ग़लत है कि देखा देखी करके वे लोग भी जिनकी क्षमता उतना ख़र्च करने की नहीं है इस प्रकार के सपने पाल लेते हैं। कभी कभी इन  सपनों को पूरा करने के लियें अपराध की ओर मुड़ जाते हैं या हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं,जो कदापि  सही नहीं है, परन्तु इसके लियें विज्ञापन जगत को दोष देना भी उचित नहीं है। उपभोक्ता को भी अपने लियें ख़ुद ही एक आचार संहिता बना कर उसका पालन करना चाहिये। सबसे पहले  प्राथमिक आवश्यकतायें पूरी करना ज़रूरी है, उसके बाद धीरे धीरे अन्य सुविधाये जुटानी चाहियें। उपभोक्ता को    सजग रहना चाहिये,     किसी विज्ञापन से आकृष्ठ होकर क्षणिक उन्माद मे कोई बड़ा ख़र्चा नहीं करना चाहिये ,अपनी  ग़लत ख़रीदारी का दोष विज्ञापन को देने से तो कोई फ़यदा होने से रहा अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के बाद कुछ धन सुरक्षित भविष्य के लियें निवेष करना भी ज़रूरी है, इन चीज़ो का एक मोटा सा प्रारूप दिमाग़ मे होना चाहिये। इसके बाद जो धन आपके पास अपल्ब्ध हो उसे अपने शौक पूरे करने के लियें प्रयोग किया जा  सकता है। जब कोई बड़ी चीज़ ख़रीदने का मन बन जाय तब बाज़ार मे उपलब्ध सामान और विज्ञापनों का आँकलन करके ख़रीदना ही उचित होता है।
आजकल हर व्स्तु मासिक किश्तो पर उपल्ब्ध होती है, कभी कोई एक चीज़ किश्तों पर ले ली जाय तो कोई बात नहीं पर कई चीज़े मासिक किश्तों मे लेने से हो सकता है प्राथमिक आवश्यकतायें पूरी करने मे या कोई आकस्मिक ज़रूरत आने पर कठिनाई का सामना करना पड़े।जिन लोगों के पास अपार धन सम्पति है उन्हे इतना विचार करने की ज़रूरत नहीं है पर आम आदमी के लियें  बिना विचार के विज्ञापन से बहकना भारी पड़ सकता है। पहले भी अमीर भी थे और ग़रीब थे पर बा़ज़ार की चमक दमक इतनी नहीं थी , इसलिये लोग किसी वस्तु के आकर्षण मे इतनी जल्दी नहीं पड़ते थे। ग़रीबी और अमीरी दुनिया मे सब जगह है ,ये बात अलग है कि विकसित देशों के ग़रीब विकासशील देशों जितने ग़रीब नहीं हैं। आर्थिक असमानता को तो कोई कम्यूनिस्ट देश भी नहीं रोक पाया, इसलिये अपनी चादर देखकर पाँव पसारने वाला मुहावरा हर स्थिति मे सही बैठता है।
आजकल तकनीकी और इलैक्ट्रौनिक्स के क्षेत्र मे रोज़ नये नये उत्पाद बहुत ज़ोर शोर के साथ बाज़ार मे उतारे जाते हैं। दिखावे के लियें ये सब इतनी जल्दी जल्दी बदलना भी ज़रूरी नहीं है ,क्योकि नये गैजेट के सारे फंक्शन  शायद हरेक के लियें उपयोगी भी न हों। यदि आपका लैपटौप ठीक काम कर रहा है या मोबाइल भी ठीक ठाक है तो किसी नये माडल से आकर्षित हो कर उसे बदलना भी ठीक नहीं होगा। माता पिता सोच समझ कर ख़रीददारी करते हैं तो संभावना यही है कि बच्चे भी फ़िज़ूल की ज़िद नहीं करेंगे। बच्चे कुछ माँग करें तो उन्हे सोच समझकर ही पूरा करना उचित है बच्चों को कुछ पौकेट मनी तो दी ही जाती है जब वे कुछ अच्छा काम करें तो उनको नक़द इनाम दे सकते हैं, जिससे वे समझदारी के साथ अपने शौक पूरा करना सीख जायेंगे। उन्हे दूसरों की चीज़ो से आकर्षित हो कर ख़रीदने की आदत को बढावा कभी नहीं देना चाहिये।
सबसे अहम बात यह है कि कोई चीज़ तब तक ही आपको आकर्षित करती है जब तक वह आपके पास नहीं होती, जब वह आपकी हो जाती है वह अपना आकर्षण खो देती है , किसी और चीज़ की तरफ़ आप आकर्षित हो जाते हैं।  ज़रा सोच कर देखिये पिछली बार जब आपने कोई बहुत मंहगी चीज़ खरीदी थी उसकी वजह से आप कितने दिन तक ख़ुश रहे थे ?