Friday, March 15, 2013

                                  अंधविश्वास का समाजशास्त्र व जनमाध्यम






मेरा यह शोध आलेख इंडियन स्ट्रीम आफ रिसर्च जर्नल शोलापुर में प्रकाशित हो चुका है ।

                                               शोध-सारांश

तर्क,युक्ति,विवेक ,अनुसंधान,प्रयोग और परीक्षण के बिना किसी भी समाज का विकास नहीं हो सकता। मानव जीवन के प्रारम्भ से अपने इन्ही विश्वस्त आत्मविश्वास पर खड़ा होकर आगे बढ़ा है। इन्ही के आधार पर मानव समाज में जिज्ञासा और शक्ति आता है कि वे अभी तक सही समझे जाने वाले सिद्धांतों को चुनौती दे सके, नये सिद्धांतों की रचना कर सके । परंतु आज मानव समाज सारे सिद्धांतों को परे रख तर्क रहित समाज गढ़ने में लगा है। संचार के सम्प्रेषण से मानव समाज तर्क- वितर्क एवं सभ्यता के नये आयाम को प्राप्त किया वही दूसरी  ओर आज जन संचार माध्यमों के द्वारा मानव चेतन में अंधविश्वास, कुतर्क, सामाजिक भेदभाव,छुवाछूत, लिंग भेद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, जैसे कुरुतियों को समाज में स्थापित करने में लगा हुआ है समाज में जनमाध्यमों की स्थापना का मूल उद्देश्य शांति प्रिय समाज का निर्माण करना था काफी हद तक जन माध्यम अपने कार्य में सफल भी हुये है पर वर्तमान में बाजारवाद के जन माध्यमों में गहरी पैठ ने चेतनशील समाज के स्थान पर अंधविश्वास को हमारे समाज में अपने आर्थिक हितो के कारण अंधविश्वास का समाजशास्त्र स्थापित करने में अपनी भूमिका निभा रहा है।

प्रस्तावना-विज्ञान का व्यापक रूप कल्याण की अवधारणा को समग्र समाज में स्थापित करता है। परन्तु आज संचार माध्यमों एवं नवीन तकनीको के मध्य यह उलझ सा गया है। जहां नवतकनीकों का प्रसार काफी तेजी से हो रहा है। वहीं दुसरी ओर समाज में तर्क चेतना के स्थान पर अंधविश्वास रूढीयां, जातिवादी जैसी अभिषप्त परम्पराएं घटने के बजाय तेजी से अपना घर मजबूत कर रही है। भारतीय संस्कृति के रक्षा के नाम पर  रुढ़िवादी परम्पराओं को तथाकथित सभ्य समाज ने अपने कंधो पर उठा लिया है जिसके कारण तर्क चेतना का हास होता जा रहा है,  अलगाववाद, दंगे, लैंगिग असमानता, भेदभाव, छुवाछूत,सांप्रदायिकता, में बेतहासा बढोत्तरी हो रही है। मानव समाज पशुवत जीवन को चुनौति देकर अपने जीवन शैली में आश्चर्य -जनक परिवर्तन लाता रहा है तथा एक तार्तिकता की ओर सतत् बढता रहा है। लेकिन दूसरी तरफ वह अतांर्किकता को सभ्यता के प्रारंभ से ही अपने जीवन में आत्मसात किये हुए है आदि काल में मानव समाज का कार्य क्षेत्र व्यापक नही था इसलिए अंधविश्वास भी कम था। जैसे-जैसे मानव समाज का कार्य क्षेत्र बढता गया वैसे-वैसे अंधविश्वास का जाल भी फैलता गया और इनके अनेक रूप भी समाने आते गये। अंधविश्वास को हम सार्वदेशिक और सर्वकालिकता में महसुस कर सकते है। यह विज्ञान के ज्ञान रूपी प्रकाश में भी छद्म आवरण ओढे रहता है इसका सर्वथा उच्छेद नही होता। अंधविश्वास मानव समाज के संग-संग कब से चलने लगा है इसका सही समयाक्रम की ठीक-ठीक निर्धारण करना असम्भव है परन्तु ऐतिहासिक साक्ष्य से पता चलता है कि मानव सभ्यता के समाजिक विकास के फलस्वरूप राजसत्ता के स्थापना के उपरांत यह महसुस होने लगा था कि जनता न किसी से भय खाते थे नही किसी नियम को ग्रहण करने के लिए तैयार थे, न ही राजा की राजतन्त्र को स्वीकार कर रहे थे। उन्हे दण्ड का भय नही था यही वह ऐतिहासिक संदर्भ है  जब जिस काल में अंधविश्वास को सृजन किया गया। प्रारंभ में अंधविश्वास को संस्कार और सामाजिक जीवन मूल्य से अलग रखा जाता था। परन्तु कालांतर में अंधविश्वास ने मानव जीवन में इतनी अधीक पकड़ बना ली कि हम अंधविश्वास को अपने जीवन का एक हिस्सा मानने लगे। अंधविश्वास का क्षेत्र काफी बड़ा है जिसमें सामाजिक मान्यताएं, सामाजिक आचार-व्यवहार से लेकर राजनीति, अर्थशास्त्र, साहित्य, जनमाध्यम, व्यापार, खेल तक इसके कार्य क्षेत्र में है। जो अपने प्रभाव के कारण समाजिक क्रांति को इस कदर जकड़ के रखा है कि मानव आज इसे एक सर्वशक्ति सम्पन्न आराध्य के रूप में मान्यता प्रदान कर चुका है। मनुष्य अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्म फल के सिद्धांत में इस कदर फसा हुआ है कि इससे बाहर आना ही नहीं चाहता या इस अंधकार से बाहर हमें हमारे धर्म नही निकालने देना चाहता, धर्म भाई-चारा बढाने वाला दया और नैतिकता का प्रसार करने वाला है ,परन्तु कालान्तर में धर्म का रूप बदल गया क्योकि जैसे ही धन- दौलत सत्ता, सैनिक ताकत, तथा शासनाधिकार से धर्म पुरी तरह से सुसज्जीत हुआ धर्म स्थापित मान्यताओ तथा उसके विरूद्ध बोलने व प्रसार करने वालो के विरूद्ध समुचा धार्मिक समाज खड़ा हो गया एवं(क्व् छव्ज् म्ग्।डप्छ व्छस्ल् ठम्स्प्टम्) अंधश्रद्धा , को अपना मूलमंत्र बना लिया । जिस यूनानी सभ्यता व वैभव की बात आज हम करते है उन्ही के दार्शनिक-सुकरात जिन्हे जहर का प्याला देकर मौत की सजा दी गयी। यह अचेतन प्राचीन काल से ही चली आ रही है कि तर्क चेतन समाज कि स्थापना के विरोध में कभी राजा-महाराजा तो कभी जंगली लडाकु कबीलाई समाज ने विरोध किया लेकिन सबसे अधिक और भयानक रूप में तर्क चेतना का विरोध धर्म एवं धार्मिक संस्थानो ने किया जिसके फलस्वरूप तर्क-चेतना आधारित समाज कि स्थापना हेतु गैलिलयो, कोपर निकस, पाइथागोरस, सुकरात रोजर बेकन, ब्रूनों,शंभूक, कबीर, गुरूघासीदास, महात्मा फुले, आम्बेडकर,महात्मा गांधी, जैसे दार्शनिक धर्म को चुनौति देते हुए हमारे समाज दिखाई देते है। जिन्हे सामाजिक रूप से धर्म से भयंकर विरोध का सामना करना पड़ा। रोजर बेकन कहते है कि ‘‘हे परमेश्वर इन लोगो को तु उनके अज्ञान से मुक्त कर ’’ यही से एक नये विचार धारा का आरम्भ हुआ जिसे त्म्स्म्।ैड का नाम दिया गया। किसी भी धर्म का अर्थ मानव सहिष्णुता है धर्म मानव समाज को यह सीख दे कि सुख का उपभोग का प्रमाण क्या हो धर्म में धार्मिक कट्टरता हानिकारक है सभी मानव समाज को धर्म की आवश्यकता है परन्तु विज्ञान एवं सच्चा धर्म एक दुसरे के पुरक के रूप मे स्थापित हो यही धर्म एवं विज्ञान की पहली और आखरी पहल होनी चाहिए। दुसरी ओर मानव समाज संचार क्रांति के फलस्वरूप सामाजिक जीवन में सुख समृद्धि के चरम के ओर निरन्तर बढ रहा है वही एक ऐसा वर्ग भी है जो अभाव ग्रस्त जीवन जाने के लिए विवश है यह गैर-बराबरी हमें सभी क्षेत्रों में दिखाई पड़ता है। विशेषकर विज्ञान के क्षेत्र में, विज्ञान का चंद लोगों हाथों का बिलौना बन कर रह जाना जिससे भयंकर प्रताड़ता व दुख अभाव ग्रस्त वर्ग झेल रहा है। हम अंतरिक्ष में बसने की बात करते है पर अंधविश्वास हमें इस कदर जकड़ रखा है कि हम इससे बाहर नही निकलना चाहते है न विरोध कर पाते है ।देश में डायन प्रथा अधिनियम- 2005  में लागू किया गया मगर यह सिर्फ किताबों तक सीमित है डायन के नाम पर महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाया जाता है। आखें फोड दी जाती, गांव से पुरे परिवार को बाहर कर दिया जाता है या पुरा का पुरा गांव मिलकर उस प्रताड़ित महिला को जान से मार डालता है।

इस कुप्रथा को रोकने के लिए सरकार प्रयासरत तो है पर अभी तक कोई अच्छी परिणाम निकलकर हमारे समक्ष नहीं आ पाया है। डायन प्रताड़ना में छत्तीसगढ, झारखण्ड, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल मध्यप्रदेश, असम, बिहार,राजस्थान जैसे राज्य अव्वल है यह शिकार खासकर उन महिलाओं को बनाया जाता है जो विधवा होती है जिसे या तो परिवार के लोग ही डायन घोषित करते है या चंद दबंग लोग जो उनके जमीन जायदाद के साथ उस महिला के इज्जत पर बुरी नजर रखते है। इस प्रकार के प्रकरण में पुरा का पुरा गांव सहभागीता निभाता  है ,जिससे कानूनी कार्यवाही नहीं भी हो पाती । संयुक्त राष्ट्र संघ के रिपोर्ट अनुसार भारत वर्ष में 10 वर्षो  में करीब 12000 महिलाओं को डायन घोषित कर मार डाला गया। छत्तीसगढ़ में  डायन प्रताड़ना के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं यह प्रताड़ना न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में है बल्कि शहरी क्षेत्र भी अछुता नही है यह इस कदर हावी  है  कि पहले बार कोई ग्रामीण शहर में बसने आता है तो पता लगाया आता है कि इन्हे ग्रामीणों ने पूर्व ग्राम से डायन घोषित कर तो नहीं निकाला है और एक पड़ोसी की भावना न रखकर उनके साथ  रखकर अच्छा बर्ताव नही किया जाता जब तक उन्हे प्रमाण पत्र न मिल जायें की ये लोग डायन घोषित नही है।

( छत्तीसगढ) बलौदा बाजार जिले के ग्रांम सौरा में पति- पत्नी की आखें ये डायन का इल्जाम लगाकर फोड दी गयी, 2001 में महासमुन्द शहर में सरे आम महिला को निर्वस्त्र कर पूरे गांव में घुमाया गया उस घटना के बाद  उस महिला ने आत्म हत्या कर ली। डायन महिला को सजा के नाम पर  गर्म तेल में झोंक दिया जा रहा है। या उन्हें मैला खिलाया जा रहा है। इस प्रकार के मामले राज्य महिला आयोग और केन्द्र दोनों में पहुंच तो जाता है पर नतीजा शून्य ही रहता है। सरगुजा जिले में ग्राम शुद्धि करण के नाम पर 50 महिलाओं को नचाया व उनके बाल काट दिये गयें यह क्रम 9 दिनों तक चलता रहा ग्राम सरपंच के शिकायत पर पुलिस आ तो गयी पर पुलिस निरिक्षिक बैगाओं से प्रभावित होकर स्वयं नाचने लगा। न जाने कितने मौते डायन के नाम पर होती है जिसका हम आंडड़ा प्रस्तुत नही कर सकते और यह खेल बदस्तुर खेला जा रहा है। महिलाओं के सशक्ति करण के लिए पंचायतो और राजनैतिक संस्थानों में 33 प्रतिशत भागीदारी की बात करते तो है पर  अंधविश्वास के कारण शोषण, कन्या-भ्रूण हत्या, जिसमें कन्या भ्रूण को नाली में बहा दिया जा रहा है या कुत्तों को खिलाया जा रहा है। ऐसे में महिलाओं के कल्याण  हेतु बने कानून निरर्थक साबित हो रहें है। अंधविश्वास को दूर करने के लिए स्वयं महिलाओं की आगे आना होगा यह न केवल सामाजिक कुरुति है बल्कि महिलाओें के अस्तित्व को भी समाप्त कर देने वाली असहनीय पीड़ा है जिसे महज महिला सशक्तिकरण के नाम पर संगोष्ठीयां आयोजित कर हम इस अभिशप्त कुप्रथा को समाप्त नहीं कर सकते इसके लिए हमें जमीनी स्तर पर जन आंदोलन की आवश्यकता होगी तभी हम महिलाओें को सही सम्मान व अधिकार दे पायेगें। अंधविश्वास से पैदा होने वाली उस परिणामों के रोकधाम हेतु औषधि और जादूई उपचार (आपत्ति जनक विज्ञापन) अधिनियम 1955, भारतीय दण्ड संहिता (420) ,डायन अधिनियम 2005 के जन्मध्यमों के द्वारा व्यापक प्रचार-प्रसार के न होने से ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों में परम्परागत सोच व तर्क रहित सोच के कारण अनेक प्रकार के अमानवीय व असामाजिक अंधविश्वास प्रचलित है। इनमें टोना, झांड फूक के आड़ में ठगी, धन दोगुना करने की चाल, गड़े धन निकालना ,ताबिज, चमत्कारिक पत्थर तथा पशु बली जिसमें कछुआ, सांप, उल्लू, व नर बली जैसे कुप्रथा से महिला प्रताड़ना एवं हिंसा धोखेबाजी से धन उगाही के साथ शारारिक शोषण किया जाता है। समयावधि में चिकित्सा न होने से असमय मृत्यु काफी होती है जो समाज के साथ-साथ विज्ञान के लिए चुनौति है। आज पूँजीवादी वर्ग अपने बाजार के लिए जिन दो चीजों का प्रचार सबसे ज्यादा कर रही है वह है धार्मिक सम्प्रेषण की पद्धति और दुसरा अंधविश्वास इन दोनों के मेल से उसभोक्तावाद का तेजी से विकास हो रहा है वही दुसरी ओर अंधविश्वास के प्रति विश्वास बढ़ता जा रहा है। पूंजीवाद अपनी सामान्य प्रकृति के अनुसार अंधविश्वास को भी वस्तु के रूप में बदल देता है। उसे संस्थागत रूप दे देता है। अंधविश्वास को कामुकता और रोमांच के साथ सम्प्रेषित करता है ।यह कार्य संचार माध्यमों के संगठित औद्योगिक माल के उत्पादन में करता है। जिससे सामाजिक असुरक्षा ,भेदभाव और तनाव में बढोतरी होगी इसका मुख्य कारण यह है कि आज अंधविश्वास को मास कल्चर ने अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बना लिया। अंधविश्वास को सम्प्रेषित कर जनमाध्यमों ने अपना विकास काफी तेजी से कर रहे है। पहले राजसत्ता अंधविश्वास से जनता को डरा-धमकाकर धन जुटाता था वही दुसरी ओर जनता के दिलो दिमाग पर शासन करता था। आज इसमें कोई विशेष बदलाव नही आया है जनमाध्यमों ने अपने सम्प्रेषण से वही हालात पैदा कर दिया है। जिसमें जनमाध्यम गणेश जी का दुग्धपान, अपाहिज लड़की का पत्थर से शादी ,एश्वर्या राय का पेड़ से शादी जैसे अंधविश्वास को टीआरपी  के फेर में पड़कर बडे शान से सम्प्रेषित कर रहा है। आज भारतीय जनमाध्यम बाबाओं से भरा पड़ा है जिसके ऊपर अनेकों संगीन आरोप लगे है उन्हें ये जनमाध्यम विज्ञापन के रूप में प्रसारित कर रहे हैं। जनमाध्यमों का विकास चेतन समाज को गढने के लिए हुआ था आज वह चेतना के स्थान पर अलौकिक, अतार्किकता  को हमारे समाज में सम्प्रेषित कर रहे है जो किसी भी प्रकार से चेतन समाज का निर्माण करने में सहायक सिद्ध नही है हो सकते। अंधविश्वास से बैद्धिक अधकचरापन उत्पन्न होता है। आज जनमाध्यम विज्ञान और विज्ञान सम्मत चेतना के बजाय मिथकीय चेतना के निर्माण करने में लगा हुआ है। विज्ञान को सत्य के खोज से हटाकर विलासिता , भौतिकता और विनाशक युद्ध के साजों सामान तक सिमित किया जा रहा है। बेशक मानव जीवन की गुणवत्ता को बढाने में जनमाध्यमों ने अपनी भूमिका का निवर्हन किया है, दुसरी ओर उसे भुखे, बेघर, अशिक्षित, शोषित समाज को विज्ञान के उजियारे में लाने में अपनी भूमिका का निवर्हन करना होगा। विज्ञान के अधिकारों को आम जन तक पूंजीपतियों के हाथों से निकाल कर जन मानस के कल्याण हेतु सम्प्रेषित करना होगा।

निष्कर्ष-अतः देकार्त के अनुसार’ किसी भी सत्य को अंतिम सत्य के रूप में न स्वीकारें चाहे विज्ञान हो दर्शन अथवा धर्म प्रश्नवाचक भाव से उसमें प्रवेश करें। सत्य आधारित ज्ञान हासिल करने की प्राधमिक पद्धति है संदेह, निरिक्षण, जांच-पड़ताल तथा सतत् अनुमत ।जनमाध्यमों को बाजार के दबाव से निकल कर तर्क चेतना को अपना हथियार बनाना होगा  साथ ही वैज्ञानिक व ज्ञान- विज्ञान से जुडे व्यक्तिओ, संस्थानों को अंधविश्वास को समाज में शास्त्र के रूप में प्रचारित करने से रोकना होगा जिससे, एक तर्क चेतन सामाज का निर्माण हो सके है। जिसमें आपसी सौहार्द्र, भाई-चारा व जीवन की गरिमा, मानवतावाद, गैर आर्थिक बराबरी का सभ्य चेतन समाज हों।

No comments:

Post a Comment