Saturday, April 20, 2013



                       आदिवासी समाज में जनसंचारक कबीर (छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में)
                                                                                                                   


                                                              

                                                                                                                    ( मित्रो मेरा यह शोध आलेख डाय मेनसन  रिसर्च जर्नल में प्रकाशित हो चुका हैं ।)
                                                                

                                                        
                                                                   शोध-सारांश

कबीर का स्वभाव सदैव ही जनोन्मुखी था, जनोन्मुखी रहा और जनोन्मुखी रहेगा। उनका सब कुछ आमजन को समर्पित रहा है। यही कारण है कि कबीर ने तत्कालनीन सामाजिक आंदोलन के निमित्त एक बड़ी जनक्रांति के सफल नायक बनकर उभरे और क्रांति के दौरान जन से अभिन्न रहे। उन्होंने एक सामान्य श्रमिक की तरह जीवन जीया। उनके संदेश सरल और जनभाषा में है जो सीधे आमजन के दिल को छूते हैं। अतः कबीर का यह ऐतिहासिक प्रयास एक दुर्लभ वस्तु है। जिस वर्ग से कामगर के रुप में उन्होंने अपनी आजीविका पाई, सबसे पहले उसी वर्ग के खिलाफ उन्होंने जेहाद का ऐलान किया, संघर्ष किया। कबीर की क्रांतिकारी विचारधारा केवल सिद्धांत का कोरा निरुपण नहीं है, अपितु अपने जनों के साथ कई अनुभवों की साझेदारी है। दरअसल एक दिये से जैसे असंख्य दिये प्रज्वलित हो उठते हैं, ठीक उसी प्रकार कबीर वाणी जो एक में प्रकट हुई, उससे असंख्य दीप मालिकाएं जगमगाने लगीं। जनता ने अपने उद्धारकर्ता के आशय को आत्मसात् कर लिया।
समकालीन परिवेश में जीवन मूल्यों की स्थिति अत्यन्त मलीन है। चूंकि, भारत विविधताओं का देश है, अतएव सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मूल्यों में भी विविधताएं सहज ही परिलक्षित होती हैं, खासकर हमारे आदिवासी समाज में। इस संदर्भ में सबसे रोचक पहलू यह है कि अब भी इन क्षेत्रों में मूल्यवादी समाज दर्शन दिखाई पड़ता है। जो दूरस्थ आदिवासी क्षेत्र हैं और अविकसित हैं, वहां सामूहिक जीवन के पारस्परिक बंधन आज भी मजबूत हैं। इनमें सामूहिक जीवन और रागात्मक जीवन में इतना पारस्परिक अवगुंठन है कि तमाम आदिवासी जातियां व्यक्तिगत जीवन के स्पर्श से अछूती नहीं हंै। और तो और उनमें वंश, जाति, परम्परा आदि को लेकर कोई कृत्रिम विभाजन नहीं है। अवलोकनार्थ जो असमानताओं के घटक दिखाई पड़ते हैं, वे पहचान मात्र के लिए हैं। उनका वास्तविक रुप से कोई अलग महत्त्व नहीं है,खास निहितार्थ नहीं है।
एक वास्तविकता और है जिसे इस क्षेत्र में अनुभव किया जा सकता है। वह यह है कि सभी प्रकार की धार्मिक विचारधारायें एक प्रमुख धर्म मानव धर्म में आकर लीन हो जाती हैं। विवेचनार्थ , इसमें सबसे अधिक विलक्षण दिखते हैं- कबीर व उनके उपदेश में। दरअसल कबीर यहां के जन चेतना के क्षितिज पर छाये हुए हैं। एक महान गुरु की तरह वे सत्यपथ से अलग हो जाने वाले व्यक्ति को सही राह पर लाते हैं। कबीर की विचारधारा इन इलाकों में विभिन्न रुपों में फैली हुई हैं। आदिवासी जीवनमूल्यों और कबीरी आदर्शों के बीच आंतरिक रुप से आदान-प्रदान सहज ही महसूस होता है। उच्च स्तर पर भी यह अनुभव किया जा सकता है। यह आंतरिक क्रिया व प्रतिक्रिया आज एक नये रुप में प्रचलित हो गई है। क्योंकि, आज आदिवासियों के सामने पहचान की एक अकल्पनीय चुनौती खड़ी है जो उनकी आज तक की समस्त उपलब्धियों और जीवन परिचय को खत्म करने पर तुली हुई  है। इस संकलपना को लेकर अध्ययन व विश्लेषण के दौरान यह समझने की कोशिश की गई है कि इस नवीन चुनौती का सामना करने के लिए कबीर की दृष्टि और विचारों को आदिवासी समाज विशेष तौर पर छत्तीसगढ़ी समाज, अनजाने या जाने में कितना आत्मसात किया है और  साथ ही साथ कबीर के संदेशों का आज के उनके जीवन संघर्ष में क्या प्रदेय रहा है? इस अर्थ युग में पैसा, बाजार और मशीन- इन तीनों के खिलाफ संघर्ष में कबीर कहां तक उनके साथ हैं ?



परिचय .     
    आरण्यक संस्कृति की प्रकृतिमयता, जीवन्तता, संतुलन, समन्वय, धर्मपरायणता, मूल्यवादिता, समावेशी चरित्र, मानवीयता, उदारता, सहअस्तित्व और चिदम्बरी चेतनाएं-ये सभी बातें हमें छत्तीसगढ़ी संस्कृति में परस्पर अवगुंठित दिखाई पड़ती हैं। इस संस्कृति की विशालता और व्यापकता यहां के लोगों की विराट चेतना का द्योतक है। दरअसल छत्तीसगढ़ी संस्कृति में हमें यही विराटता दिखाई पड़ती है, जो अनादि युग से आज तक सभी को अपने संवेदनशील बाहों में भरे एक जटिल रुप में हमें आने के लिए आह्मवान कर रही है।
छत्तीसगढ़ी संस्कृति की प्रकृति और जीवन.चर्या में सहिष्णुता और समाहार दो तत्व सदा ही विद्यमान रहे हैं। प्रगति की अंधदौड़ में वह पीछे रह गई हैए पर अपने सांस्कृतिक जटिल विधान में और मिश्रित संरचना में किसी भी सार्वभौम या विश्वव्यापी संस्कृति से कहीं अधिक आधुनिक है।
आदिम संस्कृतिए प्राचीन संस्कृति तथा आधुनिक वैज्ञानिक संस्कृति सभी छत्तीसगढ़ी संस्कृति के बहुआयामी व्यक्तित्व में समा गई है। साहित्यए संस्कृति और कला सभी में प्राचीन काल से आज तक भारत में जितने विकास दिखाई पड़ते हैंए उन सबका एक लघु रुप छत्तीसगढ़ की संस्कृति में है। आदिम संस्कृति के साथ आर्यए द्रविड़ए बौद्धए जैनए सिक्खए कबीर.पंथीए इस्लामए इसाई आदि की सांस्कृतिक धाराएं यहां की संस्कृति में दिखाई पड़ती है। शताब्दियों से भारतीय संस्कृति में असंख्य सांस्कृतिक धाराएं मिलती और नये रुपों में प्रगट होती हुई दिखाई पड़ती हैं। इन तारों को अलग कर पाना असाध्य ही नहीं असंभव भी है। सामाजिक संरचना में धार्मिक और सांस्कृतिक अनेक स्वर्णिम और रजत तार अपने ताने.बाने में भारतीय जीवन को बुनते रहै हें। फलस्वरुप जिस अखिल मानवीयता की परिकल्पना यहां दिखाई पड़ती हैए वह विश्व जीवन में एक गहरी छाप छोड़ती है। धार्मिक और सांस्कृतिक सहिष्णुता व अवबोधए मामन्जस्य और संतुलन यही विश्व को भारतीय जीवन की देन है। भारतीय संस्कृति के इस सर्वग्राही और समाहारी व्यक्तित्व की छापए उसकी क्रोड़ में खेलने वाली जितनी सांस्कृतिक चेतनाएं है . उनमें दिखाई पड़ती है।
छत्तीसगढ़ अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण संपूर्ण भारतीय जीवन में एक खास स्थान रखता है। वह अपने आप में एक छोटा भारत है . ष्ष्भौगोलिकए सांस्कृतिकए सामाजिकए आर्थिक और साहित्यिकश्श् . सभी रुपों में।
भाषा की दृष्टि से छत्तीसगढ़ भारतीय संस्कृति को आत्मसात् किए हुए हैए पर साथ ही अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण वह मिश्रित और समावेशी प्रकृति के अनुरुप एक मिश्रित और विकासमान जन.भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाये हुए है। ऐतिहासिक दृष्टि से यहां भी समय के अंतराल में अनेक जाति.प्रजातिए संस्कृतिए कलादर्शन आदि धाराएं मिलकर एक मुख्य जीवन प्रवाह के रुप में बहती रही हैं। उसकी इस समावेशी प्रकृति के कारण कबीर.पंथ का सम्पूर्ण जीवन में फैलाव अतिशीघ्र होता है। छत्तीसगढ़ संस्कृति की पहली और अंतिम पहचान है . उसकी मानवीयता और संवदेनशीलता। यही कबीरीय संदेश की भी मुख्य बातें हैं। समय चक्र के साथ जब कबीर का आगमन होता है और उनकी वाणीं वायुमंडल में गूंजती हैए तब हवा की तरंगों पर अटखेलियाँ खेलती यह रागिणी यहां के लोक जीवन में झंकृत हो उठती है। इसलिए हम कबीर पंथ को बहुत गहराई से छत्तीसगढ़ी संस्कृति में परिव्याप्त देखते हैं।
कबीरीय चेतना आने से पहले मानों छत्तीसगढ़ की जीवन्त प्रकृति उसकी आगवानी के लिए बाँह फैलाये खड़ी थी। अविलम्ब वह चारों और फैलकर यहां के जीवन के साथ एकरस हो गई। इसलिए इस कबीरीय चेतना को हम छत्तीसगढ़ में उपलब्ध आदिवासीए सत्नामीए पिछड़ा वर्गए ब्राह्मणए बौद्धए जैनए सिक्खए ईसाईए मुसलमान तथा और भी जितने मत.मतांतर हैंए सब में कमोवेश से इसे प्रतिध्वनित पाते हैं। इतना ही नहीं छत्तीसगढ़ के आस.पास अन्य क्षेत्रों में इस वाणी का प्रभाव देखा जा सकता है।
छत्तीसगढ़ की भूमि अनादिकाल से संतों . ॠषियों और मुनियों का प्रिय क्षेत्र रहा है। उनके प्रभाव से वह अपने यहां एक उदात्त स्वरुप को बना सका है। पर इस ऐतिहासिक कालखंड में हम कबीर पंथ को सर्वाधक रुप से यहां फैलते हुए देखते हैं। छत्तीसगढ़ के साधु संत और योगी भी आस.पास के क्षेत्रों में भ्रमण करते रहे और लोक चेतना जगाते रहे।
मूलभूत रुप से छत्तीसगढ़ संस्कृति लोक संस्कृति है। क्योंकि यह आदिवासी क्षेत्र है और आदिम जातियां यहां के मूल निवासी हैं। कबीर . कबीर की वाणी तथा उनका जीवन दर्शन सभी कुछ जनवादी है। उसका यही जनपदीय व्यक्तित्व छत्तीसगढ़ी संस्कृति के साथ सबसे अधिक तालमेल रखता है। जनता की आत्मपीड़ाए उसकी मौन ललकारए विश्वमानवता के मंदिर में समानता और प्रेम का अधिकार आदि वे सपने हैंए जो कबीरीय संदेश के मूल तत्व हैं। सह.अस्तित्वए पारस्परिक सहयोगए संतुलन आदि बातें जो छत्तीसगढ़ी संस्कृति की मूल बातें हैंए कितनी कबीरीय वाणी के कारण हैं और कितनी भारतीय संस्कृति के प्रभाव के कारण तथा कितनी छत्तीसगढ़ी संस्कृति की देन हैए कह पाना असंभव हैघ् किसने किसको कितना दिया और लियाए शायद यह राज तभी खुलेगाए जब प्रकृति के महामौन को वाणीं मिलेगी। तब इतिहास से कोई स्वर मुखरित होगा या फिर आकाश में कोई जीवन रागिणी लहरायेगी। मध्ययुग के नीलगगन मेंए झलमलाते संतों की आकाशगंगा में सबसे अधिक तेजोदीप्त संत कबीर का अन्यतम स्थान है। कालजयी कबीर के संदेश मानवता की चिरन्तन निधि हैं। अर्थयुग और जन्त्रारुढ़ वि के संदर्भ में कबीर के मूल्यान्वेषणए मूल्यासंस्थापन व मानववाद का विशेष महत्व है। आज सांस्कृतिक शून्यता है। कबीर का मूल्यवादी और मानववादी दृष्टिकोण आज के संकट का उत्तर है। मानव समाज अपने इतिहास सफर में आज सबसे अधिक कठिन दौर से गु रहा है। ष्ष्पैसाए बाजार और मशीनश्श् जो उपभोगवाद और उपयोगितावाद के प्रतीक हैंए ये तीनों आज मनुष्य के जीवन मूल्योंए आदर्शों और मानवबोध को बड़ी तेजी से क्षरण की ओर ले जा रहे हैं। वे जीवनादर्श और भावनादर्श जो मनुष्यता की सुंगंध से सुवासित थे न जाने कहां खो गये हैं। मानव के सुकुमार संबंधए उसके रागमय जीवन के तुहीन कणए उसके नन्हे.नन्हें सुख.दुख की अनेक कणिकायें आदि बातें व्यापारिक युग के बाजार में विक्रय की वस्तु बन गयी हैं। मानवीय संबंधों के प्रति एक पाषाणी तटस्थता मिलती है। रागात्मक और मूल्यवादी जीवन के लिए गहन उदासीनता। समाज में अकल्पनीय असमानता हैं। अति.केन्द्रीत.शक्ति.संरचना में राज्य और बाजार दोनों ने मिलकर मानव को कृतदास बना लिया है।हां सब कुछ अमानवयी है। सब कुछ मानव और उसकी स्वतंत्रता के खिलाफ हो रहा है। स्थिति बहुत उत्साहजन नहीं हैए पर हम यह न भूलें कि मानवयी चेतना सदा ही दासत्व के खिलाफ बगावत करती रही है। जीवन के गंभीरतम उतार.चढ़ाव के बीच अपने को ढ़ालती रही है। क्रांति का स्वरुप भिन्न हो सकता है पर उसका जो मर्म है वह एक है। कबीर उस क्रांति के प्रतीक हैं। कबीर का विद्रोह सामाजिक अन्यायए विषमता अतिचार तथा व्यवस्था के हताश और धूरीहीन चरित्र  के खिलाफ है। कबीर ने सामाजिक विषमता के सभी रुपों का बहिष्कार किया है। साथी ही उन स्रोतों को जा विषमता की रचना करते हैं उन्हें तिरष्कृत किया है। उसने आर्थिक विषमता को चुनौती दी है। धर्म के नाम पर जो धोखाधड़ी चल रही है कबीर ने सीधे.सीधे उन पर आक्रमण किया है। समाज का वह अधिकारी वर्ग जो अपने को सुरक्षित रखने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपना रहे हैंए कबीर का सीधा आघात उन्हीं पर है।  कबीर  उग्र प्रखर यहीं होते हैं। यह महान परम्परा आज भी उस सरल जन समाज में लिप्त है जो खासकर प्रकृति के निकट है। जो शिक्षा के नाम पर सूचनाओं के विस्फोट से भ्रमित नहीं हैं। वस्तुतरू यह सूचनाओं का विस्फोट मनुष्य के खिलाफ एक साजिश है और मनुष्य की आत्मचेतना को खण्डित करने के लिए है। अब समय आ गया है कि इस मिथक का पर्दाफाश हो तथा इस प्रलंयकारी परिवर्तन के सभी पहलुओं पर प्रश्न चिन्ह लगाये जायें और एक नया मार्गदर्शन ढूंढ़ा जाये।पर यह काम तथाकथित आधुनिक युग के पूर्व निर्धारित संरचना के अंतर्गत नहीं हो सकता। यह खोज इन जीवंत प्रथाओं में करनी होगी जो आदिवासी या वनवासियों में पायी जाती है। ये गिरीजन इस चीज से अनजान हैं कि वे एक परम्परा को सरक्षित रखे हुये हैं। वे यह नहीं जानते कि वे इतना बड़ा काम कर रहे हैं। वे यह भी नहीं जानते कि इस एकीकृत या सम्मिलित राशि के विभिन्न घटक कौन.कौन से हैं और उसका स्रोत क्या हैघ् कबीर मात्र एक नाम है या एक अज्ञात व्यक्ति हो सकता हैघ् पर वह ठीक उसी प्रकार उसके प्राणों को छूता है जिस प्रकार चांद.सूरज या मीठी हवा। जैसे प्रकृति के इन उपादानों में उसके प्राणों का आशय अभिव्यक्त होता हैए ठीक उसी प्रकार कबीर की वाणी में उसका अंतरूस्वर मुखरित है। कबीर का ष्करघाश् अपने ताने.बाने में न जाने किस अतिन्द्रीय लोक के लिए एक बड़ा ही महीन चादर बुन रहा है। भौतिकता और आध्यात्मिकता के ताने.बाने पर वह चिरन्तन मानवता के लिए एकजीवनगीतए एक जीवनलय की सृष्टि कर रहा है। और रोबट बने आज के मानव में प्राण फूंक रहा है। तथा वह उस हरितिमा की सृष्टि कर रहा है जिससे यह लौह युग हरितिमा में बदल जाये ।   
             कबीर के संदेश वि जनीन होते हैं। कबीर की सुदृढ़ मान्यतायेंए भावात्मक सौन्दर्यए आर्थी व्यंजना आदि बातें जाने अनजाने क्या कुछ कहती और करती हैंए समझना मुश्किल है। कबीर की रचनायें सरल सम्वेदना की बेहद जटिल रचना हैं। अतरू जीवन में इनकी परिव्याप्ति को आंकलित कर पाना बेहद पेचीदा कार्य है। परंतु इतना कहा जा सकता है कि जनमानस पर कबीर का प्रभाव है। कहीं यह प्रभाव मूर्त है तो कहीं अमूर्त। कहीं ज्ञात है तो कहीं अज्ञात। कबीर ने जिस एकताए धार्मिक सहिष्णुता और जन चेतना की बात कही वह भारतीय समाज की पुरानी व्यवस्था है। भारतीय समावेशी संस्कृति कबीर की समाहारी जीवन दृष्टि में अभिव्यक्त हो रही है। सांस्कृतिक धार्मिक सहिष्णुता भारतीय संस्कृति की अपनी विशेषता है। उन्मुक्त जीवन चेतना और विराट् मानववाद आरण्यक संस्कृति की पहचान है। और यही कबीरीय चेतना का भी परिचय है। इन्हीं तत्वों को हम आदिवासी सामाजिक जीवन में प्रतिफलित पाते हैं। सदियों से एक ही आकाश के नीचे और एक ही भू.खण्ड पर रहते हुये जीवन की ये विभिन्न धारायें आपस में कितनी लेन.देन करती रहींए इसका आंकलन कैसे होघ् केवल इतना ही कहा जा सकता है कि कबीर ने भारतीय संस्कृति के प्राणाशय को अपनी वाणी का विषय बनाया। इसलिए सभी के साथ उसका गहरा रागात्मक संबंध है। राष्ट्रीय जीवन से लेकर प्रादेशिक जीवन तकए वि जीवन से लेकर आंचलिक जीवन तकए कबीर की वाणी का प्रसार कबीर स्वयं जन था। अतरू उसके पास जन.व्यक्तित्व था। वह जनसंचारक बनकर मार्ग.प्रदर्शक बना थाए और जननायक बना था। वह जन नायक बनकर जन के पास नहीं गया था। उसका यह जन व्यक्तित्व उसकी अपार जनसंचारक शक्ति का आधार थाण् सबसे बड़ी बात उसे अपने जन होने का गर्व था। कहीं भी आत्महीनता का भाव नहींय वरन् महाप्राणता का औदात्य है।जीवन का जहर उसने पिया था। इसलिए वह बहुत संजीदा हो उठा था। उसका पर.दुख.कातर मन उसे अथाह जन.समुद्र में सहज ही मिला देता था। और तब बुल.बुला फल कर समुद्र बन जाता था। कबीर था कहां वहां तो जन समन्दर गरज रहा था। इसलिए वह भारत की अस्मिता का प्रतीक बन गया।
एक साधारण जन बनकरए जन का जीवन जीकरए कामगर के रुप में जीविका उपार्जन करए कबीर ने जो क्रांति की उसमें एक विशाल आत्मा के दर्शन होते हैं। कबीर महामना था। उसके व्यक्तित्व की दिगंत प्रसारी शक्तियों का आकलन नहीं हो सकता। केवल इतना ही कहना चाहेंगे कि वह अद्भुत था।
आदिवासियों के साथ उसका संबंध जन्म जन्मांतर का था। इसलिए वह जाने अनजाने उनका हो गया। सब प्रकार की विषमताओं को समाप्त करने और एक न्यायोचितए संतुलित व्यवस्था को कायम करने के उद्देश्य से कबीर संघर्ष करता रहा। समानता की स्थापना हर स्तर पर होनी चाहिए . सामाजिकए धार्मिकए आर्थिकए राजनितिक आदि। इसी समानता की स्थापना के लिए कबीर अपना साम्यवाद देता है जो प्लेटो यच्संजव द्ध के साम्यवाद और माक्र्स के साम्यवाद से सर्वथा भिन्न है। कबीर का साम्यवाद . मूल्यवाद और मानववाद पर आधारित है। कबीर के साम्यवाद से सामाजिक दायित्व.बोधए पारस्परिक सहयोग एवं सामाजिक समानता आदि बातों की वृद्धि होती है। व्यक्ति और समाज के बीच टकराहट व तनावपूर्ण संबंध नहींय वरन् सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्थापित होता है। व्यक्ति अपने निजी जीवन से अधिक सामाजिक जीवन में जीना चाहता है। उसी में अपने जीवन की पूर्णता एवं सुख मानता है। जहां व्यक्तिगत स्वार्थ नहींए लोभ नहींए वहां सामूहिक रुप से सभी एक दूसरे की मदद करते हैंए और दुख कठिनाइयों को दूर करते हैं
लक्ष्य  एवं उद्देश्य
प्रस्तुत शोध आलेख के अध्ययन के  लक्ष्य एवं  उद्देश्य निम्नलिखित थे रू
1   छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिकए भौगोलिक विविधता को जानने का प्रयास करना ।
    आदिवासियों के सामाजिकए सांस्कृतिक जीवन का अध्ययन ।
3ण्    आदिवासी समाज के राजनैतिक ए आर्थिक संरचना पर प्रकाश डालना ।
4  आदिवासी समाज के विश्व .बंधुत्व की परिकल्पना को जानने का प्रयास करना  ।
5    भूमंडलीकरण और उदारीकरण  के दौर में कबीर की प्रासंगिकता का अध्ययन करना
6    कबीर जी को आदिवासी समाज के जन से जन संचारक के रूप में ग्रहण करना  और अपने दैनिक जीवन में उनके विचारों को आत्मसात करने की कड़ी को जानने का प्रयास करना 
पद्धति
      आदिवासी समाज में आदिवासी संस्कृति की नैसर्गिक छटा अतुलनीय है। वह एक सरल.सहज जीवनधारा और चेतनाधारा है। उसमें धरती की खुशबूए प्रकृति की विविधता और रमणीयताए नदियों की गतिशीलताए पहाड़ों की अदम्यताए एक सरल मानवीय संबंध दिखाई पड़ता है। प्रकृति के साथ उनके जीवन का केवल तालमेल ही नहीं वरन् तद्रूपता और नैसर्गिकता विद्यमान है। हर बदलता मौसमए हर बदलते त्यौहार उनके जीवन में एक नई मूच्र्छनाए ताललय नृत्य और जीवन की अनूठी भंगिमा लेकर आते हैं। ये प्रकृति पुत्र प्रकृति से कटकर रह नहीं सकते। अपने में ये आत्मतुष्ट और स्वावलंबी होते हैं। परंतु क्या वर्तमान समय में जनसंचारक कबीर के संचार को आदिवासी समाज अपने सांस्कृतिकए सामाजिकए आर्थिक जीवन आत्मसात किए हुये है इसका अध्ययन  छत्तीसगढ़ में महासमुंद जिले के आदिवासी क्षेत्रो में किया गया है । सूचनाओ का संग्रहण आदिवासी मुखियाओ से मौखिक साक्षात्कार एवं संबन्धित साहित्यों के अध्ययन से लिया गया है
परिणाम और निष्कर्ष
    कबीर की इन्हीं बातों की समानता हम आदिवासी समाज में देखते हैं। आदिवासियों की जो कम्यूनिटी लाइफ है अर्थात्  सामुदायिक जीवन उसमें रागात्मक सहयोगए समानताए सामूहिक जिम्मेदारी और सामाजिक रुप में दायित्व की पूर्ति आदि तत्व सहज रुप से विद्यमान होते हैं। अतरू आदिवासी सामाजिक संरचना व कबीर की सामाजिक दृष्टि में काफी समानता है।
अर्थव्यवस्था.       उदर समाता अन्न लैए तनहि समाता चीर।
                अधिकहिं संग्रह ना करैए ताकों नाम फकीर।
आदिवासी . इनकी समाज व्यवस्था में सामूहिकता एवं रागात्मकता का ऐसा ताना बाना है कि वे समूह में जीना पसंद करते हैं। इनकी अर्थव्यवस्था का आधार सहकारिता है। वे पर्यावरण के दोहन पर नहीं उसमें आजीविका पालन में विश्वास रखते हैं। इनमें लाभ अर्जित करने की परम्परा नहीं रहती है। वे सहजए सरल है और लोभ से दूर हैं।
                       साईं इतना दीजिएए जामें कुटुम्ब समाय।
                      मैं भी भूखा न रहूँए साधु न भूखा जाय।।
आदिवासियों की मूल पारंपरिक अर्थव्यवस्था कबीर के इस मूल विचार के समीप खड़ी है। वे आर्थिक संग्रहण से दूर हैं। उनकी आर्थिक नीति निजी आवश्यकता तक सीमित है। जहां साधु यसत्जन व्यक्तिए अथवा सामाजिक जिम्मेदारीद्ध के दायित्व की बात आती हैए इसे भी वे सामाजिक रुप से पूरा करते हैं। अर्थात इनकी सामाजिक.व्यवस्थाए आवश्यकता से अधिक संग्रहण परए सीधे तौर पर अंकुश लगाती है। इनकी अर्थव्यवस्था साम्यवादी व्यवस्था के अनुरुप है।
इस तरह कबीर की आत्मतुष्ट जीवन नीति आदिवासी समाज व्यवस्था का सार है
सहज ज्ञान और प्रत्यक्षानुभूति
मैं कहता आंखन की देखीए तू कहता कागद की लेखि।
मैं कहता सुरझावन हारीए तू राख्यो उरझाई रे।।
आदिवासी कागजी संस्कृति से अपरिचित है। वे नहीं जानते कि लेखी और अंगूठा की छाप का क्या अर्थ होता है। उनका ज्ञान तो सिर्फ प्रत्यक्षनुभूति पर आधारित होता है। जो हुआ सो देखा। जो देखा सो सच है। फिर सच को प्रमाणित करने की क्या जरुरत हैघ्
आज आदिवासी समाज इसी सच एवं इसी सच के प्रमाणीकरण के बीच उलझ कर शोषण का शिकार हो गया है। और शायद यही कह रहे हैं .
मेरा तेरा मुनंवाए कैसे एक होई रे।
इस तरह कबीर एवं आदिवासी दोनों ही अंखियन देखी बात को सच मानते हैं कागज लिखी विद्या को नहीं।

राजनीति में मूल्यवादिता
एक न भूलाए दोऊ न भूलाए भूला सब संसार
एक न भूला दास कबीराए जाके राम अधार।।
आदिवासी समाज में यह मूल्यवादिता उनके प्रत्यक्षज्ञान और प्रत्यक्षनुभूति के कारण आज भी जीवित है। इनकी परम्परागत पंचायत में किसी भी विवाद पर निर्णय सामूहिक होता है। जिससे एक न्यायपूर्ण और संगतिपूर्ण प्रशासन आदिवासी समाज में मौजूद रहा है . यही कबीर का ष्जनवादश् है।
श्रम श्रम ही ते सब कुछ बनेए बिने श्रम मिले न काहि।
सीधी अंगुलि घी जमोए कबहूँ निकसै नाहि।।
नागरिक स्वतंत्रता
खेलो संसार मेंए बांधि न सके कोय।
घाट जागति का करेए जो सिर बोधा न होय।।

समाज राजनितिक स्वतंत्रता के साथ वैचारिक स्वतंत्रता के भी हिमायती है। उनकी राजनीतिक स्वतंत्रता इस हद तक आदर्श है कि यहां मत.विभाजन से चुने जाने का कोई प्रावधान ही नहीं रहा है। अर्थात यहां सभी कार्य सर्व.सम्मति से होता हैं। यहां की राजनीति स्थिति सहज.सरल एवं स्पष्ट रही है। अतरू यहां प्रत्यक्ष लोकतंत्र की आधारशिला के रुप में स्वतंत्र नागरिकों की ग्राम सभायें कार्यरत हैं।
रागात्मकता
उड़ा बगुला प्रेम काए तिनका उड़ा आकास।
तिनका तिनके से मिलाए तिनका तिनके पास।।
 आदिवासी मौन वातावरण में गाते हैं तथा अंधेरे में नृत्य करते हैं। वे अपने कष्टोंए दुख और दुर्दशा को गीत एवं संगीत में ही डुबा देना चाहते हैं। यदि वे अलग.अलग नातचे तो मानो उन्हें एक दूसरे की जरुरत नहीं होती। इस तरह आदिवासी समाज में प्रेम तत्व की ही प्रमुखता है। यह प्रेम ही उनकी सरलता और सहजता में परिलक्षित होता है।
न्यायिक व्यवस्था
यह मन तो ऐसा निर्मल भयाए जैसे गंगा नीर।
पीछे.पीछे हरि फिरैए कहत कबीर कबीर।।
आदिवासियों की न्यायिक व्यवस्था अनौपचारिक होने के कारण अत्यंत सहज एवं सरल है। इस समाज में व्यक्ति अपने वचन से बंधा हुआ होता है। अतरू खुला हुआ है। न्यायिक व्यवस्थाए सदाचारी एवं मूल्यवादी है।
इस ह्रास शील युग में यआदिवासी मूल्यवादी न्यायिक चेतना ठीक उसी तरह है जैसे समाज में कबीर के पदद्ध
वीरता
खरी कसौटी राम कीए खोटा टिकै न कोई।
राम कसौटी जी टिकेए सो जीवित मृत होई।।
पर्यावरण की चुनौतियों ने आदिवासियों को पाठ पढ़ाया है कि यदि वे इन चुनौतियों को पराभूत नहीं करेगेंए उसे समाप्त कर देंगी। अतरू इस समाज में बच्चों से यह अपेक्षा रखी जाती है कि जब वह मवेशी चराने के लिए जंगल ले जायें और किसी जावनर का आक्रमण हो उस स्थिति में जानवर को भगाने की वीरता उस बालक में होनी चाहिए। क्योंकि यहां कोई खोटा टिका नहीं रह सकता।
धर्म
जहं.जहं डोलौ सो परिकरमाए जो कुछ करों सो पूजा।
जब सोवों तो करौं दण्डवतए भाव मिटावों दूजा।।
आदिवासियों का धर्म अत्यंत सहज धर्म है। वे प्रकृति की पूजा करते हैं। इनका मूलधर्म प्रकृति से जुड़ा है। प्रकृति के जिन रुपों को और चमत्कारों को वे नहीं समझ पाते हैंए उसकी पूजा शुरु हो जाती है। इनकी पूजा में न कोई कर्मकाण्ड होता है और न कोई आडम्बर। वे कबीर की तरह मानवतावादी हैंए और नर यसमाजद्ध में नारायण यजीवन अस्तित्वद्ध को देखने की उनकी दृष्टि भी है
नश्वरता
चंदा मरिहैंए सूरज मरिहैए मरिहैं सब संसार।
एक न मरिहैं दास कबीराए जाके राम आधार।।
आदिवासी भी जीवन की नश्वरता को पूरी तरह स्वीकार कर गृहस्थ.जीवन की गरिमा को कम स्वीकार करते हैं। वे कबीर की तरह मुक्त एवं वीतरागी हैं। मृत्यु की सार्वभौमिकता को स्वीकार कर वे गाते व नृत्य करते हैं। यहां मानव जाति का निवास है। यहां सभी मरणशील है।
कबीर ने जिस वैचारिक स्वतंत्रता की बात कही है . वह आदिवासियों का जीवनानुभूत सत्य है। क्योंकि गिरिजनए प्रकृति के खुले प्रांगण में रहते हैं। प्रकृति की उन्मुक्तताए सहजताए जीवन्तता और विस्तार आदिवासी जीवन में निसर्गतरू विद्यमान है। उनकी जीवन सरिता जलप्रपात बनकर गिरती है। तो कभी कांटों से उलझती हैए कभी गहन उपत्यकाओं में से गुजरती हैए तो कभी समतल.भूमि पर अपनी धीर.मन्थर गति से जीवन सफर की रहस्यभरी गाथाओं को रुपायित करती है। यह शैवालिनी कभी शैशव की कोमल छटा बनकर प्रकट होती हैए तो कभी अल्हड़ किशोरी बनकर कुसुमित कानन से उलझतीए लरजती बहती हैए तो कभी यौवन के उन्माद से उफनती उन्मादिनी बनकर सब कुछ बहा ले जाती हैए तो कभी श्वेत कुन्तल सी निरमल जल की लड़ियों से जीवन का गंभीर आशय खोलती है।यदि इन्होंने फूलों से हंसना सीखा तो भौरों से गाना। सूरज से जीवन की ऊष्मा ली तो चांद से जीवन की शीतलता। इस तरह प्रकृति.सुन्दरी उनके जीवन को संवारती और बनाती है। महाकाश और महाप्रकृति का यह खेल इनके जीवन में लाइट एण्ड शैडो की रचना कर जीवन का रहस्य भरा भावभीना अनुभव कराते हैं।
         कबीर की ही तरह आदिवासियों के पास शास्र ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान की पूंजी है। वे भी कबीर की तरह शास्र वाक्य का नहीं मानुषी वाक्य का प्रयोग करते हैं। वे भी शास्रीय दुनियां में नहीं माटी दुनियां में रहते हैं। उनकी दुनियां भी नन्दन कानन नहीं वरन् पथरीला वन प्रान्तर है। अतरू इन प्रकृति.पुत्रों की कबीर के साथ संगति नहीं होगी तो और किस के साथ होंगीघ् किसी अन्य के साथ होन अत्यंत कठिन है। कबीर जैसा जन यदि आदिवासियों के साथ मिलकर तद्रूप नहीं हुआ तो फिर और कौन होगाघ् अतरू यदि कबीर आदि संत हुये तो यह आदि समाज।
      आदिवासी लाभ की प्रवृति से दूर है। इनके लिये परोपजीवी व परावलम्बी होना अनुचित है। यहां तक इस समाज में भीख मांगने की प्रथा भी नहीं है। श्रम इस समाज की पूंजी है। पुरुषए स्रीए बच्चे सभी अपने.अपने अनुकूल कार्य करते हैं। अतरू परिवार में श्रम विभाजन का उदाहरण देखने को मिलता है। इसा का परिणाम है कि . आदिवासीए गांव और समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं कर लेते हैं। इन गांवों में आर्थिक साधनों का केन्द्रीयकरण भी नहीं हुआ है। अतरू आदिवासीयों के द्वारा श्रम को प्रमुखता देना . कबीर के साम्यवाद की छवि को ही उभारता है। क्योंकि कबीर का साम्यवाद सदा से ही चली आने वाली भारतीय सामाजिक आर्थिक.नीति को ही अभिव्यक्ति हैए जिसमें संसाधनों का अकेन्द्रीयकरण यछवद.बमदजतंसपेंजपवद द्ध मिलता है। यही गांधी जी की दृष्टि भी है।
                    इस यंत्र युग के पास न आकाश हैए न धरतीए न हवाए न पानीए न प्रकृतिए न वायुमण्डल। आज पाताललोक भी सुरक्षित नहीं है। वहां विस्फोट है। सब कुछ दूषितए सबकुछ जीवन.नाशक है। सब कुछ मानवए उसके जीवनए उसके इतिहास और उसकी संस्कृति के खिलाफ हैं। मशीनी.सत्ता का बोल.बाला है। कम्प्यूटर.कल्चरद्ध धरती से आसमान तक व्याप्त है। भोगवादए लोभवादए साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के साथ अब अंतरिक्षवाद भी जूड़ गया है। पता नहीं भूमण्डलीयकरण में और क्या समा जाएगा।अंतरिक्ष युग में छोटी सी धरती ध् बौना सा मानव ध् उसका नन्हा सा घरौंदा ध् और दुर्वा.दलों का शबनबी बुलावा ध् महाकाश के अनंत विस्तार में कहां स्थान पाएंगेए कौन जानेघ् केंप्सुल में बंद अंतरिक्ष यात्री को नया दिगन्त मिलेगा या नहींए यह भी कैसे कहेंघ् यह इस्पाती अजरता.अमरता और यह अंतरिक्षीय.जीवन क्या एक बूंद आंसू के भार से कंपित तृण की सजलता दे सकेंगेघ् क्या आज दिशाहीनए घबरायाए हारा.थका और विकल मानवए अपने लिए कोई नयी दुनिया ढूंढ़ पाएगाघ् यह तो समयाधीन है
इस युग की चल रहीए इस अमानवीयकरण की प्रक्रिया में मनुष्य के संसारए उसके जीवनए उसके आदर्शए उसकी भावनाओंए उसके कोमल रिश्तों तथा नन्हें.नन्हें सुख.दुखों के लिए कोई स्थान नहीं है। वह अपना मालिक भी नहीं है। वह विराट् मशीन का पुर्जा मात्र है। उसके जीवन के साथ मशीन नहं चलतीए पर मशीन के साथ उसका जीवन चलता है। ऐसे समय में छत्तीसगढ़ की आरण्यक.संस्कृति मानव को एक पल विश्राम लेने के लिए अपनी हरी.भरी वादियों में बुला रही है। यहां की उदारमानवताए सरल जीवनए धार्मिक सहिष्णुताए समावेशी चरित्रए मूल्यवादी दृष्टि और मानवीय संबंधों की सजलता आदि बातें इस जले.भुने वि को एक हरित.निकेत की ओर बुला रही हैं। अभी यह प्रदेश व्यापारिक दुनिया की होड़ा.होड़ी और सौदेबाजी से काफी दूर है। यहां के बनवासी अपने हरे.भरे वातावरणए सीमित आवश्यकताए क्षीण आर्थिक स्रोत और एक अंतहीन दुर्दान्त संघर्ष के बीच भी प्राण भरा और खुशनुमा जिन्दगी जीते हैं। छत्तीसगढ़ की शस्य.श्यामला धरती जन्त्रा.रुढ़.विश्व को हरियाली दे रही हैं। उसकी नदियां उसका गौरवगान कर रही है। उसके फूलों से सुवास लेकर बनमाली इस बासन्ती बहार में तनिक विश्राम के लिये सभी को बुला रहा है। लोगों की सहजता और उनकी सहृदयता सभी को सरल ढंग से अपना बना लेती है। संघर्षरत इस वि को छत्तीसगढ़ की संस्कृति अपने वनफूलों का एक गुलदस्ता उपहार के रुप में देती है। प्राकृतिक जीवन में लौट आने के लिए।श्श् अपनी परंपराए जीवनधारा और मान्यताओं को सदा सुरक्षित रखने वाली यह धरती हमें केवल अतीत के रहस्यलोक में नहीं ले जाती है वरन् आज के जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए एक समाधान भी देती है। समय के साथ जितनी सांस्कृतिक व धार्मिक धाराएं यहां आई वे सब इराकी जीवन.धारा के साथ मिलकर एकाकार हो गई है। इन्हें अलग कर पाना कठिन है। आज आतंकवाद और हिंसावाद के नाम पर न जाने मनुष्य के कितने गलत चेहरे दिखाई पड़ रहे हैं। संस्कृति और धर्म के नाम पर न जाने कितनाए अनुचित व्यापार चल रहा है। ऐसे समय में छत्तीसगढ़ की धार्मिक.सहिष्णुताए सह.अस्तित्वए सामंजस्य पूर्ण जीवनए एक संतुलित.दृष्टि आदि बातें वि के लिए एक जीव स्वप्न है। यदि हमारा यह छोटा सा प्रयास छत्तीसगढ़ की इस प्रकृति या भूमिक को विश्व.समाज के सामने प्रस्तुत कर सका तो हमारा प्रयास सार्थक हो जायेगा।पर चिंता की बात यह है कि आज उस पर हर ओर से प्रहार हो रहा है। छत्तीसगढ़ की इस चेतना और विशेषता को हम किस प्रकार संरक्षित रख पायेंगे। और भविष्य में मानव जीवन के विरोधी तत्वों के खिलाफ एक प्रतिबल के रुप में खड़ा कर पायेंगे। यह हमें गम्भीरता से सोचना होगा और प्रयास करना होगा। यह आज की स्थितियों में असम्भव को सम्भव करना है। न जाने भविष्य के अंतर में हमारे लिए क्या संचित हैघ्
                                         
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